धारा 497 असंवैधानिक फैसला महिलाओं की आज़ादी या बर्बादी?  | New India Times

अरशद आब्दी, ब्यूरो चीफ झांसी, NIT:​धारा 497 असंवैधानिक फैसला महिलाओं की आज़ादी या बर्बादी?  | New India Times

लेखक:सैय्यद शहंशाह हैदर आब्दी

केरल के एक प्रवासी भारतीय जोसेफ साइन ने इस संबंध में याचिका दायर करके आईपीसी की धारा-497 की संवैधानिकता को चुनौती दी थी। कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई की कि व्यभिचार अपराध की श्रेणी में आता है या नहीं। इस मामले में कोर्ट 8 अगस्त को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।

सुप्रीम कोर्ट की जुबानी

  •  किसी पुरुष द्वारा विवाहित महिला से यौन संबंध बनाना अपराध नहीं।
  •  शादी के बाहर के संबंधों पर दोनों पर पति और पत्नी का बराबर अधिकार।
  •  एडल्टरी चीन, जापान, ब्राजील में अपराध नहीं है। कई देशों ने व्यभिचार को रद्द कर दिया है। यह पूर्णता निजता का मामला है।
  •  शादी के बाद संबंध अपराध नहीं हैं। धारा 497 मनमानी का अधिकार देती है।
  •  महिला से असम्मान का व्यवहार असंवैधानिक। जस्टिस खानवलकर ने अडल्टरी को अपराध के दायरे से बाहर किया। एड्रल्ट्री अपराध नहीं हो सकता है।
  •  आईपीसी 497 महिला के सम्मान के खिलाफ। महिला और पुरूष को प्राप्त हैं समान अधिकार।
  •  महिला के सम्मान के खिलाफ आचरण गलत है। पति महिला का मालिक नहीं है बल्कि महिला की गरिमा सबसे ऊपर है।

आप ने पढ़ लिया और बड़ी आसानी से पढ़ लिया। इस पर गम्भीर चिंतन और सशक्त विरोध की ज़रूरत है।

जस्टिस डी.वाई. चन्द्रचूड़ कहते हैं,” महिला को शादी के बाद सेक्सुअल च्वाइस से वंचित नहीं किया जा सकता।” अर्थात सात जन्मों के साथ और पतिव्रता की मान्यता बकवास है?

यह फैसला महिलाओं को आज़ादी नहीं बर्बादी की तरफ ले जायेगा। उनके शोषण और उनपर अत्याचार के नये दरीचे खोलेगा।

अगर ब्रह्माण्ड में सब कुछ चक्र पर आधारित है तो ये भी मान लेना पड़ेगा कि मानव सभ्यता का भी अपना चक्र है। जहाँ आज हम उस संस्कृति के आसपास घूम रहे हैं जो सदियों पहले आर्याव्रत या भारत देश का हिस्सा रही है, सतयुग के बाद त्रेता युग से द्वापर और अब कलियुग में इसे विस्तारित भाव से देखना पड़ेगा। यह और बात है कि आप इसका व्यक्तिगत समर्थन ना भी करें, लेकिन जो हालात समाज के हैं, उसमें इसे नकारने से वाक़ई कुंठा बढ़ेगी, और बारीक़ी से देखें तो ये अवस्था बाल्यावस्था से किशोरावस्था और फिर युवावस्था तक दिल-ओ-दिमाग़ के अंदरख़ाने कहीं पैवस्त भी रहती है। जिसे विवेक, मर्यादा और संस्कारों की रस्सी से सब बांधे रहते हैं, इस पर बेशक़ बहस होनी चाहिए और किसी नतीजे तक पहुंचना भी ज़रूरी है।

हमारी गंगा जमुनी तहज़ीब को पश्चिमी बदतमीज़ियों ने निगलना तो कब का शुरू कर दिया था। अब माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी कोई कसर ना छोड़ी तहज़ीब को मिटाने की। जो बची खुची तहज़ीब है उसे भी समलैंगिकता को जायज़ ठहराना और विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाना भी हर महिला का अधिकार है और उस अधिकार को छीनना स्वतन्त्रता के अधिकार का उल्लंघन है, बता कर समाज का बेड़ा ग़र्क़ करने की पूरी तैय्यारी कर दी गई है।

ये मर्ज़ी की बीमारी ले डूबेगी समाज को, परिवारों के विखंडन का सबसे बड़ा कारण भी यही है, अब इसे कानून का रूप मिल जाने से पता नहीं कितने चरित्रों का नाश होगा।

उम्मीद पर ही दुनियां कायम है, चरित्र और मर्यादा इंसान के जीवन में सीमा तय करते हैं, जहां दोनों का नाश हुआ, समझो गाड़ी कभी भी गहरी खाई में गिर सकती है, कई लोगों के साथ ऐसा हो चुका है।

पति—पत्नी के बीच में वो को स्वीकार्यता देकर सुप्रीम कोर्ट क्या कहना चाह रहा है? आपकी मर्ज़ी आप इसको किस तरह से देखते हैं, लेकिन इस देश से सेक्स को एक निषेध सामाजिक चर्चा के दायरे से बाहर करना होगा। मसला है तो बहस होनी ही चाहिए, घर के भीतर भी और बाहर भी।

अब तक तो ठीक था । धारा 377 के बाद ये दूसरा मामला है जिसमें आधुनिकता के नाम पर कुछ तय भारतीय मानकों के साथ बड़ा समझौता सा किया गया है।
धारा 497 समाप्त होने के बाद– छूटे हुए, भूले-बिसरे फिर से मिलेंगे और तब उन्हें कैसे रोकोगे? हत्या और मारपीट के लगभग 30 प्रतिशत अपराध इसी कारण से होते थे। इन अपराधों में बढ़ोत्तरी अवश्य होगी पुलिस को नयी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।

गे को छूट, लेस्बियन को छूट, शादी के पहले छूट, शादी के बाद छूट। इनके अतिरिक्त अन्य अधिक महत्वपूर्ण मामलों की लाखों फ़ाइलें पड़ी हुई हैं- मी लोर्ड। ज़रा उनकी भी धूल झाड़ लेते। न्यायालय में बैठे हो कि यौन समस्या समाधान केंद्र में? 

हमारे लोकतंत्र की ख़ूबी ही मैं, तुम और हम की है लेकिन अब यह मैं, तुम और वो की हो जायेगी।

कई मर्दों से शारिरिक सम्बन्धों का आनंद लेने के बाद गर्भवती औरत यह कैसे निर्णय लेगी कि उस बच्चे का बाप कौन है? 

न्यायालय में भी यह निर्णय मनमानी से ही हुआ है!तभी तो देश की आस्था, विश्वास, प्रथा , परम्परा, संस्कृति,और सभ्यता को एक साथ ताक पर रख कर यह निर्णय एक प्रवासी भारतीय के कहने पर हो गया है।

यदि एक मनमानी का सम्पूर्ण अधिकार लागू कर दिया जाय तब तो फिर बलात्कार, हत्या, आत्महत्या, शोषण , भ्रष्टाचार कुछ भी अपराध नहीं है। 

भारतीय वैवाहिक नियम का उल्लंघन यह कोर्ट की अपनी मनमानी नहीं है तो क्या है?

जब भारत के धर्म अर्थ काम और मोक्ष की किसी अवधारणा को भी बिना माने,विवाहेत्तर सम्बन्ध को मान्यता दी जाने लगे तो क्या यही हम पूरी दुनिया को दिखाना चाहते है,की हम वेश्यालयों, गे और लेस्बेनियन समूह के निर्माण में तुम्हारे गुरु हैं ? 

मनमानी और स्वतंत्रता का भेद तक जिस न्यायलय के न्यायधीशों को न पता हो वो कैसे न्यायधीश हो गए?

स्वतन्त्रता – जो आत्मज्ञान से संचालित है। मनमानी मतलब जो मन से संचालित हो। तो मन को सभी जानते है,इसको आज़ाद करोगे तो यह अधिकतर गंदगी ही खायेगा, इसी मनमानी को रोकने के लिए तो ये न्यायालय था।

लेकिन बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है की अब हम तो इसे न्यायालय नहीं कह पाएंगे।

अच्छी तरह समझ लीजिये घोर समस्याओं, में घिरने जा रहा है हमारा महान देश हिन्दुस्तान।

हमारी संस्कृति और समाज किस दिशा में जा रहा है ? इस बात को लेकर बुद्धिजीवियों से लेकर न्यायपालिका और संसद तक गंभीर नहीं है यह बदलाव समाज के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता हुज़ूर ।

कल को स्वतन्त्रता का अधिकार का हवाला देकर और न जाने कितनी गन्दगी हमारे समाज को दलदल बना देगी और हम उसमें उगे हुए कमल के फूल को देखकर बस तालियाँ बजाते रह जाएंगे ।

सनातन संस्कृति की दुहाई देकर सत्ता में आने और लाने वाले स्वभूं संगठनों को सांप क्यों सूंघा हुआ है? क्या उच्चतम न्यायलय के यह फैसले भारतीय सनातन संस्कृति पर हमला नहीं? अगर किसी अन्य राजनीतिक पार्टी की सत्ता में ऐसे फैसले आते तो भी क्या वे ऐसे ही मौन वृत धारण किये रहते? 

भारत के विद्यालयों से गुरुकुल की अवधारणा को नष्ट करने के बाद ,मनमानी पसन्द युवा पीढ़ी बनाकर अब उस मनमानी को संवैधानिक बनाती क़ानूनी पद्धति।

जिस देश के न्यायलय ही ,देश की संस्कृति धर्म और परम्पराओ तथा नैतिकता को नष्ट करने पर तुल जाएंगी। उस देश का कल्याण भला कौन कर पायेगा?

यदि हमारे अंदर राम, कृष्ण, ईसा, मोहम्मद, विवेकानंद, शंकराचार्य आदि महानात्माओं की संस्कृति का एक क़तरा भी जीवित है,तो संघर्ष करके इन निर्णयों का बहिष्कार कीजिए।

नहीं तो न हम हिन्दुस्तानी समाज के रह पायेंगे न पाश्चात्य समाज के।

“धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का।”

याद रखिए, आज हो सकता है कुछ लोगों को यह सही लग रहा हो मगर इसका ख़ामियाज़ा हमारे आने वाली नस्लों को अपनी बर्बादी से चुकाना ही पड़ेगा। 


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By nit

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