अशफाक कायमखानी, ब्यूरो चीफ जयपुर (राजस्थान), NIT:
आगामी राजस्थान विधानसभा चुनाव को लेकर राजस्थान की आबादी का चोदाह-पंद्रह प्रतिशत वाला मुस्लिम समुदाय अपने प्रतिनिधित्व को आबादी के अनुपात में पाने को लेकर शिद्दत से अब तक रही अपनी खामियों से सबक लेकर एक मात्र पार्टी कांग्रेस का बंधुआ मतदाता ना बनकर सभी दलों से अपने हिस्से की उम्मीदवारी पाने का प्रयास करके अलग अलग जगह अलग अलग प्रभावशाली मतदाताओं से गिव एंड टेक के फारमुले के तहत आपसी सामनजस्य कायम कर टेक्निकल वोटिंग करने की कोशिश में बहता साफ नजर आ रहा है। जबकि कांग्रेस हर हालत में मुस्लिम को अपना बंधुआ वोटर बनाये रखने के खातिर जीतने वाली सीट से उम्मीदवार ना बनाकर कोटा पूरा करने के लिए दिखाने मात्र की चेष्टा की गर्ज की सोच के साथ हर तरह के हरबे बिना हिस्सेदारी दिये अपनाने में कोई कसर नही छोड़ रही है। इसके विपरीत भाजपा मजबूरी में चार या पांच उम्मीदवार बनाकर एक तरफ मुस्लिमों को लालीपाप देने को लालायित है वही दूसरी तरफ इनके विरोध में बहुसंख्यक मतों को लामबंद करने में भी बडी शिद्दत से दिलचस्पी दिखा रही है।
भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत होने वाले चुनावों में नजर दौड़ाते हुये राजस्थान में अब तक जीतने वाले मुस्लिम विधायकों के इतिहास पर नजर डालें तो पाते हैं कि 1952 के पहले चुनाव मे कुल 160 सदस्यों के सदन मे 05 मुस्लिम सदस्य चुनाव जीत कर आये थे। उसके बाद 1957 में 04, 1962 मे 03, 1967 मे 05, 1972 मे 04, 1977 में 07, 1980 मे 06, 1985 मे 07, 1990 मे 07, 1993 में 04, 1998 में 12, 2003 में 05, 2008 में 12, व 2013 में 02 मात्र मुस्लिम विधायक जीत पाये हैं।
इसी तरह विधायकों से जरा अलग हटकर देखें तो लोकतांत्रिक इतिहास मे राजस्थान में लोकसभा चुनाव में एक मात्र कैप्टन अय्यूब खां दो दफा झूंझुनू से चुनाव जीत कर सांसद बन पाये हैं। इसके विपरीत राज्यसभा में बरकतउल्ला खान, मौलाना असरारुल हक, उसमान आरीफ, डाॅ. अबरार, दूरु मियां, नजमा हेपतुल्लाह व अश्क अली सदस्य बन पाये हैं। नजमा भाजपा से व बाकी सब कांग्रेस के टिकट पर राज्य सभा में गये हैं।
राजस्थान की 66 साला लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में अब जाकर मुस्लिम समुदाय की करीब तीन पीढियों का गेप आने के कारण पुरानी व नई युवा पीढी की राजनीतिक सोच में गुलाम जहनियत को लेकर जमीन आसमान के अंतर की तरह काफी बदलाव देखा जा रहा है। मौजूदा युवा पीढी किसी एक दल की बंधुआ वोटबैंक बनकर कतई जीना नहीं चाहती है। आज का युवा मुस्लिम मतदाता अपने सभी राजनीतिक विकल्पों को खूला रखकर खासतौर पर जाट-राजपूत व ब्राह्मण मतदाताओं की तरह बदलते राजनीतिक हालात के अनुसार बदलाव की बयार बहाने को आतूर नजर आ रहा है। मौजूदा समय में राजस्थान में केवल भाजपा के ही दो मुस्लिम विधायक होने के बावजूद उनके अलावा कांग्रेस व तीसरे विकल्प के तौर पर उभर रहे बेनीवाल-तिवारी व बसपा के साथ साथ लोकतांत्रिक मोर्चे के विकल्प को भी उनकी मजबूती के अलग अलग क्षेत्रानुसार आंकलन अपनाने का प्लान बना रहा है। भाजपा से चार पाचं टिकट मिलने की सम्भावना को अलग रखकर कांग्रेस कितने को टिकट देती है। उसके बाद तीसरे विकल्प को अपना कर मुस्लिम समुदाय चुनावी रण मे उतरने का पूरा मध बना चुका है। हालांकि कांग्रेस पार्टी आज भी 1952 व 57 के चुनाव की तरह मुस्लिम समुदाय को ट्रीट करने पर उतारु है। जबकि मुस्लिम मतदाता आज से दस साल के बाद के होने वाले राजनीतिक परिद्रश्य को सामने रखकर चलने को उतारु है।
कुल मिलाकर यह है कि संघर्ष से लीडरशिप उभरने के फारमुले के तहत मुस्लिम समुदाय का युवा अब चुनाव लड़ कर संघर्ष करते हुये अपने अंदर से लीडरशिप को उभारना चाहता है। काशीराम का कथन कि पहला चुनाव हराने के लिये व दूसरा चुनाव जीतने के लिये लड़ने को भी मद्देनज़र रखते हुये सीकर के वाहिद चौहान की तरह प्रदेश का कम से कम तीन दर्जन मुस्लिम नेता काशीराम के फार्मूले पर चलकर समुदाय को दिशा देने को प्रयासरत हैं। जहा से गिव एंड टेक के फार्मूले के तहत आसानी से चुनाव जीतने वाली सीटों से अगर भाजपा व कांग्रेस समुदाय के नेताओं को उम्मीदवार नहीं बनाती है तो तीसरे मजबूत विकल्प के साथ जुड़कर राजनीतिक पारी की नये रुप से शुरुआत करता समुदाय नजर आ रहा है।
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