लेखक: वी.के. त्रिवेदी, लखीमपुर खीरी
शिक्षा व शिक्षक एक दूसरे के पूरक हैं या यूं कहें कि एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा की “शिक्ष” धातु में “अ” प्रत्यय लगाने से बना है। इस प्रकार शिक्षा शब्द का अर्थ है “सीखने सिखाने की क्रिया” शिक्षा एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है किंतु सामान्य रूप से हम औपचारिक व अनौपचारिक शिक्षा के माध्यम से इसे समझने का प्रयास करते हैं। औपचारिक शिक्षा एक निश्चित पाठ्यक्रम, शिक्षक व संस्थान के सम्मिलित प्रयासों से निश्चित अवधि तक लोगों को प्रदान की जाती है। जबकि अनौपचारिक शिक्षा हम कभी भी, कहीं भी व किसी से भी प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि शिक्षा किसी भी व्यक्ति को प्राप्त ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ उपहार है जो उसे पशु योनि से पृथक करता है और समाज में सम्मानजनक स्थान प्रदान करता है। शिक्षा जन्म से लेकर मृत्यु तक निर्बाध चलने वाली एक निर्माण प्रक्रिया है जो प्रमुख रूप से मनुष्य में निहित आंतरिक शक्तियों को विकसित करते हुए उनका प्रकटन करती है। शिक्षा व्यक्ति को कुशल बनाती है। शिक्षा का एक प्रमुख अंग है- पाठ्यक्रम। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है। जिसके तीन प्रमुख अंग हैं शिक्षक, विद्यार्थी एवं पाठ्यक्रम।इन तीनों की पारस्परिक क्रिया में ही शिक्षा निहित है। प्राचीन काल में शिक्षा स्वस्थ वातावरण में तथा आश्रमों में आचार्यों द्वारा प्रदान की जाती थी। उस समय आचार्य अधिकतर साहित्य शिष्यों को कंठस्थ कराते थे। एक शिक्षक की प्रशंसा में कहा जाता है कि
शिक्षक अर्थात एक विश्वसनीय हांथ जो हमें अवसाद में डूबने से बचा ले।
शिक्षक अर्थात जिनका एक शब्द निराशा के पलों में आशा का दीप बन जाए। शिक्षक अर्थात एक ऐसा व्यक्तित्व जो हमारे हित में सही मार्ग दिखाए। शिक्षक अर्थात जो हमें अज्ञानता से ज्ञान की ओर व अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए। शिक्षक अर्थात जो न केवल हमें अक्षर ज्ञान प्रदान करे बल्कि जीवन के प्रत्येक सोपान में हमें मार्गदर्शन भी करे।
गुरु शिष्य परंपरा भारत की संस्कृति का एक अहम एवं पवित्र हिस्सा है। माता-पिता हमें इस रंग बिरंगी व खूबसूरत दुनिया में लाने के कारण प्रथम पूज्य हैं। इसी कारण माता-पिता को बच्चे का प्रथम गुरु कहा जाता है किंतु मां- पिता, समाज, मित्र व रिश्तेदार हमें अनौपचारिक शिक्षा प्रदान करते हैं जो हमारे व्यवहारिक जीवन में अत्यंत सहायक होती है। किंतु जीवन जीने का वास्तविक सलीका हमें शिक्षकों के मार्गदर्शन से प्राप्त होता है जो हमें औपचारिक शिक्षा के माध्यम से प्राप्त होता है। यही शिक्षक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए बिना थके निरंतर प्रयास करते हैं। शिक्षक अपने छात्रों को अपना समझकर शिक्षा प्रदान करते हैं और पूरी मेहनत करते हैं। एक छात्र के रूप में जब हमें प्रेरणा एवं प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है तब यही शिक्षक हमें धैर्य व ज्ञान के माध्यम से किसी भी अप्रिय स्थिति से बाहर निकलना सिखाते हैं। भारत के गौरवशाली इतिहास को अगर हम देखें तो हम पाते हैं कि इस देश की धरती पर अनेक महान आचार्यों ने शिष्यों को महान बनाया है। वशिष्ठ जी-श्री राम, संदीपनी मुनि-श्रीकृष्ण, श्रीपरशुराम- भीष्म, रामानंद- कबीर दास, नरहरिदास- तुलसीदास, वल्लभाचार्य- सूरदास, मत्स्येंद्रनाथ- गोरखनाथ, रैदास-मीराबाई, गोविंद भागवत्पादजी- आदि शंकराचार्य, श्रीकृष्ण-अभिमन्यु, आलार कलाम- गौतम बुद्ध, श्री रामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानंद, समर्थ गुरु रामदास-छत्रपति शिवाजी, गोपाल कृष्ण गोखले-महात्मा गांधी, चाणक्य-चंद्रगुप्त मौर्य जैसे उदाहरणों के द्वारा यह समझा जा सकता है कि अच्छे शिष्य को तैयार करने के लिए गुरु भी विशिष्ट ही होते हैं। शिक्षक की महिमा को कबीर दास ने इस प्रकार प्रकट किया है:-
सब धरती कागज करूं,
लिखनी सब बन राय।
सात समुद्र की मसि करूं,
गुरु गुण लिखा न जाए।
इसी प्रकार गुरु की महत्ता को इन पंक्तियों के माध्यम से बताया गया है:-
गुरु पारस को अंतरों
जानत हैं सब संत
वह लोहा कंचन करें
यह करि लए महंत।
शिक्षक ने समाज को हमेशा ही सुधार कर एक नई दिशा दी है। शिक्षक हमारे अंदर समाज कल्याण की भावना जागृत करते हैं। एक साधारण व्यक्ति को महान योद्धा बनाने से लेकर ज्ञानवान- आदर्शवाद बनाने में शिक्षक का एक अहम योगदान होता है। शिक्षा प्रदान करना सबसे बड़ा धर्म है क्योंकि शिक्षित व्यक्ति ही एक विकसित समाज की आधारशिला होते हैं। अतः प्रत्येक मनुष्य को शिक्षक की भांति समाज को ज्ञान बांटना चाहिए ताकि समाज का कल्याण हो सके।
गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि कण-कण में ईश्वर व्याप्त है इस प्रकार हर कोई एक दूसरे का गुरु है शिष्य भी है। भारत के हर घर में बसने वाली श्री रामचरित्र का यशोगान करने वाली अजर-अमर श्रीरामचरितमानस की प्रथम चौपाई को श्री तुलसीदास अपने गुरु के चरणों में समर्पित करते हुए लिखते हैं-
बंदउ गुरु पद पदुम परागा,
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।
अमिय मूरिमय चूरन चारु,
समन सकल भव रुज परिवारु।
इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जो यह बताते हैं कि प्राचीन काल एवं मध्य काल में गुरु शिष्य की परंपरा पवित्र थी। किंतु आज गुरु-शिष्य आधुनिकता के रंग में रंगे हुए हैं यहां तक कि वास्तविक गुरु की पहचान भी आसान नहीं है। शिक्षा प्रदान करना व्यवसाय बनता जा रहा है। यूं तो शिक्षक गुणों की खान होते हैं फिर भी शिक्षक के अंदर आदर्श व्यक्तित्व, सर्वगुण संपन्ननता, समानता का भाव, रोचक पूर्ण अध्यापन, विनोद प्रियता, अनुभव बांटना, समय और अनुशासन का पाबंद होना, आत्मसम्मान और विषय का वृहद ज्ञान जैसे मूलभूत गुणों का होना अति आवश्यक है।शिष्यों ने सदैव से ही अपने गुरुओं का सम्मान किया है व उनके निर्देशों का पालन किया है चाहे परिस्थिति कैसी भी हो। श्री राम के द्वारा गुरु विश्वामित्र की आज्ञा से राक्षसों का संहार करना व सीता स्वयंवर में प्रतिभाग करते हुए सीता माता का वरण करना हो या श्रीकृष्ण द्वारा अपने गुरु संदीपनी मुनि के मृत बालक पुनर्दत्त को यमराज से वापस लाना हो या एकलव्य द्वारा गुरु द्रोणाचार्य के आदेश पर अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काट कर देना हो या भीष्म का अपने गुरु श्री परशुराम के आदेश पर उन्हीं से युद्ध करना हो या समर्थ गुरु रामदास के आदेश पर छत्रपति शिवाजी का शेरनी का दूध लाना हो जैसी असंख्य घटनाओं से हमारी सभ्यता व संस्कृति भरी पड़ी है। आधुनिक युग में भी गुरु शिष्य परंपरा को जीवित रखने का पूरा प्रयास किया गया। आधुनिक काल में भी ऐसे तमाम गुरु हुए जिनके शिष्य लोगों के प्रेरणाश्रोत हैं।
शिक्षक दिवस आखिर डॉक्टर राधाकृष्णन के सम्मान में ही क्यों?
यूँ तो भारत देश में एक से बढ़कर एक आचार्यों ने जन्म लिया। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक तमाम नामचीन गुरुओं की महिमा का यशोगान हमारे ग्रंथों-पुराणों में किया गया है। लेकिन शिक्षक को सम्मान देने की औपचारिक शुरुआत कब से और क्यों हुई यह भी विचारणीय है?
बीसवीं सदी के दौरान 5 सितंबर 1888 को तमिलनाडु राज्य के तिरुतानी गांव में एक ब्राह्मण परिवार में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म हुआ था। राधाकृष्णन का परिवार आर्थिक तंगी से जूझ रहा था फिर भी राधाकृष्णन विलक्षण प्रतिभा के धनी थे और उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा सदैव प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।राधाकृष्णन को मेधावी होने के कारण सदैव छात्रवृत्ति प्राप्त होती रही जिस कॉलेज से इन्होंने एमए किया था बाद में उसी के उपकुलपति के पद को भी सुशोभित किया। वह एक राष्ट्रवादी व्यक्ति थे। वह विद्यार्थियों को साक्षर से कहीं ज्यादा शिक्षित बनाने के पक्षधर थे। शिक्षा प्राप्त करने के बाद मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज, मैसूर विश्वविद्यालय, कोलकाता विश्वविद्यालय, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में भी उन्होंने अपनी सेवाएं दीं। वह जब भारतीय परिधान पगड़ी व धोती पहनकर धाराप्रवाह हिंदी-अंग्रेजी में विद्यार्थियों को पढ़ाते थे तो विद्यार्थी मंत्रमुग्ध होकर उनको सुनते रहते थे। यह भी कहा जाता है कि उनके क्लास को पढ़ने के लिए अध्यापक तक लालायित रहते थे। डॉ0 राधाकृष्णन ने अपनी जीवनी में लिखा है कि वह स्वामी विवेकानंद व वीर सावरकर से अत्यंत प्रभावित थे।1952 से 1962 तक देश के प्रथम उपराष्ट्रपति रहने के बाद जब 1962 में डॉ0 राधाकृष्णन देश के द्वितीय राष्ट्रपति बने तब उनके तमाम शिष्यों ने उनका जन्मदिन मनाने का निर्णय लिया और उनके पास आए और उनसे तमाम अनुनय-विनय की। तत्पश्चात राधाकृष्णन ने उनसे कहा कि यदि आप सब मेरा जन्मदिन मनाना ही चाहते हैं तो मेरा जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाएं। तदुपरांत भारत में शिक्षकों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हुए प्रतिवर्ष शिक्षक दिवस का आयोजन 5 सितंबर के दिन होने लगा। यद्यपि 100 से ज्यादा देशों में विश्व शिक्षक दिवस 5 अक्टूबर को मनाया जाता है।राधाकृष्णन दर्शनशास्त्र के बहुत ही बड़े विद्वान थे। बीसवीं सदी के दर्शनशास्त्र के श्रेष्ठ विद्वानों में उनकी गिनती होती थी। उन्होंने सैद्धांतिक, धार्मिक, नैतिक, शिक्षाप्रद व ज्ञानवर्धक विषयों पर लेख लिखे। उनकी प्रमुख लिखी पुस्तकें इंडियन फिलॉसफी, द भगवत गीता, सत्य की खोज, फिलासफी आफ हिंदुइज्म व अवर हेरिटेज हैं। साहित्य में अप्रतिम योगदान को देखते हुए उनको साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए 16 बार व नोबेल शांति पुरस्कार के लिए 11 बार नामांकित भी किया गया। उनको मिले पुरस्कारों की लंबी श्रृंखला है। 1975 में अमेरिकी सरकार द्वारा धर्म के क्षेत्र में अविस्मरणीय योगदान देने के लिए टेम्पटलन पुरस्कार प्रदान किया गया। वह इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले पहले गैर ईसाई व्यक्ति थे। उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा था कि वह अमेरिका के राष्ट्रपति भवन “व्हाइट हाउस” में हेलीकॉप्टर से पहुंचने वाले पहले अतिथि थे। डॉ0 राधाकृष्णन ने शिक्षक के रूप में 40 वर्ष अपनी सेवाएं विभिन्न संस्थाओं में दी। उन्होंने एक राजदूत से लेकर राष्ट्रपति के रूप में देश में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया। लेकिन सत्य व कर्तव्यनिष्ठा के मार्ग से कभी विचलित नहीं हुए। राधाकृष्णन स्वयं को राजनीतिक व्यक्ति से कहीं ज्यादा शिक्षक समझते थे।राधाकृष्णन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के प्रथम अध्यक्ष रहे, साथ ही भारत रत्न से सम्मानित होने वाले भारत के पहले व्यक्ति थे। डॉ0 राधाकृष्णन का 88 वर्ष का संपूर्ण जीवन चरित्र एक आदर्श शिक्षक से समन्वय स्थापित करता है। इसी कारण उनको राष्ट्रपति से कहीं ज्यादा सम्मान शिक्षक के रूप में प्राप्त हुआ। आधुनिक शिक्षा व्यवस्था व आज की तमाम शिक्षण संस्थाएं उनकी दूरदृष्टि का परिणाम हैं। भारत के प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी वीवीएस लक्ष्मण उनके खानदान से ताल्लुक रखते हैं। भारत के राजनीतिक इतिहास में विरले ही राजनेता ऐसे होंगे जिन्होंने सक्रियता की स्थिति में ही अपने राजनीतिक संन्यास की घोषणा कर दी हो यह खूबी भी डॉ0 राधाकृष्णन में थी। 1967 में भाषण देते हुए उन्होंने घोषणा कर दी थी कि राष्ट्रपति के इस कार्यकाल के पश्चात मैं राजनीतिक संन्यास ले लूंगा और दोबारा राष्ट्रपति अब नहीं बनूंगा।
एक बार उन्होंने कहा था कि
शिक्षक उन्हीं लोगों को बनाया जाना चाहिए जो सबसे अधिक बुद्धिमान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए बल्कि उसे अपने छात्रों का स्नेह और आदर अर्जित करना चाहिए।
आज शिक्षक दिवस के शुभ अवसर पर ऐसे प्रभावशाली, बुद्धिजीवी वर्ग के प्रेरणाश्रोत, विराट व कालजयी व्यक्तित्व को सादर नमन व विनम्र श्रद्धांजलि।
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