अशफाक कायमखानी, जयपुर/नई दिल्ली, NIT:
भारतीय मुस्लिम समुदाय का आजादी के बाद 1952 से जारी लोकतांत्रिक प्रणाली से लेकर आज तक दो पक्षों द्वारा आपसी रजामंदी के तहत बुने जाल में एक से भय के कारण दूसरे व पहले के भय के कारण दूसरे के पास आने के रुप मे जकड़े रहने का परिणाम यह निकला कि भारत में किसी भी दल में या फिर अलग से मजबूत लीडरशिप उभर नहीं पाने के कारण मुस्लिम समुदाय किसी और के रहम-ओ-करम पर सियासत में कभी मछली पानी के अंदर तो मछली कभी पानी के बाहर की तरह तड़पते रहते आया है।
भारतीय लोकसभा में सांसदों की तादाद में समय-समय पर इजाफा होता रहा है लेकिन संसद में जीतकर जाने वाले मुस्लिम सदस्यों की तादाद 1979 में सबसे अधिक 49 थी जो उस समय कुल तादात का करीब दस प्रतिशत प्रतिनिधित्व था। 1979 के लोकसभा चुनाव के पहले व बाद में हुये लोकसभा चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधित्व हमेशा 1979 के मुकाबले कम ही रहा है।
भारत मे लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत अब तक के हुये लोकसभा चुनावों पर नजर डालें तो पाते है कि 1952 में 11 मुस्लिम सांसद जीत पाये जो 2 प्रतिशत हिस्सेदारी बनती है। 1957 में 19 मुस्लिम सांसद बने जो 4 प्रतिशत हिस्सेदारी बनती है। इसी तरह 1962 मे 20 मुस्लिम सांसद जीते जो 4 प्रतिशत होते हैं। 1967 मे 25 सांसद जीते जो 5 प्रतिशत, 1971 में 28 मुस्लिम सांसद जीते जो 6 प्रतिशत, 1977 में 34 सांसद जीते जो 7 प्रतिशत, 1979 मे 49 जीते जो 10 प्रतिशत, 1984 में 42 जीते जो 8 प्रतिशत, 1989 में 27 जीते जो 6 प्रतिशत, 1991 में 25 जीते जो 5 प्रतिशत, 1996 में 29 मुस्लिम सांसद जीते जो 6 प्रतिशत, 1998 में 28 जीते जो 6 प्रतिशत, 1999 में 31 जीते जो 6 प्रतिशत, 2004 के लोकसभा चुनाव में 34 मुस्लिम सांसद जीते जो 7 प्रतिशत, 2009 में 30 मुस्लिम जीते जो 6 प्रतिशत और 2014 में 23 मुस्लिम सांसद जीते जो 4 प्रतिशत के प्रतिनिधित्व के आंकड़े पर आकर टिक जाता है।
भारतीय मुस्लिम समुदाय में 1952 के पहले चुनाव की शूरुआती दौर से लेकर अब तक समुदाय में एक भावना कूट कूट कर भरे जाने का सिलसिला जारी है कि उनका भला केवल कांग्रेस पार्टी ही कर सकती है। कांग्रेस के मुकाबले पहले जनसंघ व अब भाजपा उनके हितों को नजर अंदाज ही करती रहती है। यहां तक की तीसरे फ्रंट के दलों पर भी कांग्रेस नेता मुसलमानों को लेकर अनेक दफा अलग अलग तरह के आरोप लगाते रहे हैं। कभी कभी ओवेसी जैसे कोई मुस्लिम नेता अपना दल बना कर कुछ जगह अलग से उम्मीदवार चुनाव में उतारने की कोशिश के साथ ही कांग्रेस नेता एक सोची समझी साजिश के तहत उसको भाजपा को जीतने की चाल चलने वाला नेता कहकर बदनाम किया जाता है। जब मुस्लिम मत भाजपा की तरफ आता नजर नहीं आया तो भाजपा ने भी बहुसंख्यक मतों का ध्रुवीकरण करने का खेल शूरु करने पर उसे कामयाबी मिली और मुसलमान मतदाता अलग थलग पड़ता नजर आया। देखने में तो यहां तक आया है कि भाजपा में रहने वाला कट्टर छवि वाला नेता जब भाजपा छोड़कर कांग्रेस मे शामिल होने के साथ साथ बडा धर्मनिरपेक्ष नेता बन जाता है। मुस्लिम मतदाता जो पहले उसे नफरत की नजर से देखता था वो अब उस नेता को मोहब्बत की नजर से देखने लगता है। इसके विपरीत कांग्रेस का धर्मनिरपेक्ष नेता जब भाजपा ज्वाइन करता है तो मुस्लिम समुदाय में उसके प्रति नफरत के बीज बोये जाते हैं जबकि यह सत्य है कि कागला के हरा रंग करने से वो तोता नहीं बन पाता है।व, वो रहेगा तो हर हाल में कागला ही।
भारत में हो रहे लोकसभा चुनाव के दो दौर खत्म होने व बाकी बचे चुनावी दौर में होने वाले मतदान में मुस्लिम समुदाय भाजपा को हराने वाले उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करता नजर आ रहा है। चुनाव की धूरी मुस्लिम मतदाता को बनने से बचते हुये चुनाव को मुद्दों पर होने की तरफ ले जाना चाहिए। मुस्लिम मतदाता को अलग थलग पड़ने के बजाय भारत के अन्य मतदाताओं की मतदाता के रुप मे पैश करना चाहिए चाहे वो किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करे।
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