आज़ादी के अमृत महोत्सव से स्वर्णिम भारत की ओर, दया एवं करुणा के लिए आध्यात्मिक सशक्तिकरण के अंतर्गत घर बने मंदिर विषय पर व्याख्यान | New India Times

संदीप शुक्ला, ब्यूरो चीफ, ग्वालियर (मप्र), NIT:

आज़ादी के अमृत महोत्सव से स्वर्णिम भारत की ओर, दया एवं करुणा के लिए आध्यात्मिक सशक्तिकरण के अंतर्गत घर बने मंदिर विषय पर व्याख्यान | New India Times

ब्रह्माकुमारीज़ द्वारा आयोजित 4 दिवसीय मैडिटेशन शिविर के द्वितीय दिवस का कार्यक्रम स्थानीय सेवाकेंद्र प्रभु उपहार भवन माधौगंज में सम्पन्न हुआ । लगभग 500 से भी अधिक भाई बहनों द्वारा आज भी दोनों सत्रों में उपस्थित रहकर शिविर का लाभ लिया ।शिविर कार्यक्रम के लिए विशेष रूप से ग्वालियर पहुंची आदरणीय गीता दीदी जी द्वारा “कमों को श्रेष्ठ, विकर्मों को दग्ध तथा संस्कारों को शुद्ध करने का उपाय : योग (मैडिटेशन)” विषय पर अपने वक्तव्य में कहा-
संसार के सभी लोग मानते हैं कि जैसा कर्म वैसा ही मनुष्य को फल मिलता है। कर्म-सिद्धान्त तो सभी के लिए समान हैं । क्रिया और प्रतिक्रिया के वैज्ञानिक सिद्धान्त को तो सभी मानते हैं । और ‘कर्म और फल उसी नियम का आध्यात्मिक पक्ष ही है। कर्म अविनाशी है; मनुष्य को अपने किये गए हर कर्म का प्रतिफल अवश्य ही मिलता है यह अटल नियम है । मनुष्य को चर्म चक्षुओं से दिखाई दे या न दे, परन्तु हरेक के साथ न्याय होता है । हाँ, देर हो सकती है परन्तु नियमानुकूल चलने वाले इस जगत में अन्धेर नहीं है । जब कोई मनुष्य क्रोध करता है तो तत्क्षण भी उसका मन एक दाह अनुभव करता है, उसका संस्कार बिगड़ जाने के बाद में भी वह बार-बार उसके वशीभूत होकर मानसिक तनाव और क्षोभ से पीड़ा का अनुभव करता है, सम्बन्धों के बिगड़ जाने का दुष्परिणाम भी उसके सामने आता है । पश्चाताप की अग्नि में भी पीड़ा का अनुभव करती है और स्थिति के अधिकाधिक बिगड़ते जाने से उलझनों एवं कुटिलता के भंवर रुपी बंधन में मनुष्य फंस जाता हैं । ऐसी ही हालत अन्य विकारों (काम, लोभ, मोह, आकार, आलस्य, भय) इत्यादि से युक्त कर्म विकर्म बनते है अतः विकार एवं विकर्म दुखों का मूल है और मनुष्य के मन मे इनका मूल उगता तथा पलता है । मन को निर्मल एवं निर्विकार करने तथा विकारों को निर्बीज बनाने के उपाय का नाम ही योग है। योग ही एक ऐसी सूक्ष्मतम अग्नि है जिस से मनुष्य के विकर्म दग्ध होते है। यदि उनको दग्ध न किया जाय तो दुःखों के बीज तो रह ही जायेंगे। पुनश्च योग ही संस्कारों के परिवर्तन का भी एकमात्र तरीका है, क्योंकि एक तो पुरानी आदतों को छोड़ने के लिये योग रूप साधन से ही सर्वशक्तिमान परमात्मा से आध्यात्मिक शक्ति मिलती है और मनोबल मिलता है तथा परमात्मा द्वारा शान्ति एवं आनन्द का ऐसा फव्वारा सा मनुष्य के मन पर पड़ता है कि जो उसका सारा मैल धो डालता है, शीतल कर देता है । संसार के मनुष्य सुख, शान्ति तथा आनन्द के लिये स्वयं ही पुरुषार्थ कर रहे हैं । उनका तो क्षण-क्षण में मनोभाव भी बदलता रहता है तथा मानसिक अवस्था भी बदलती रहती है। अतः जो स्वयं ही स्थिर नहीं है तथा पूर्ण शान्त भी नहीं है, उससे हम स्थायी एवं सम्पूर्ण आनन्द की कामना कैसे कर सकते हैं? विचार करने पर हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परमात्मा, जिसको आनन्द का सागर’ एवं सर्व सुखी का दाता माना गया उस एक से नाता जोड़ने से तथा उसका संग लेने से ही मनुष्य को सम्पूर्ण आनन्द की प्राप्ति हो सकती है । उस एक परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने का नाम ‘योग’ है। परन्तु यह सम्बन्ध उसके परिचय के बिना नहीं जुट सकता और उसका सच्चा परिचय भी वह स्वयं देता है। वर्तमान समय में, जबकि मनुष्य विकारों की ज्वाला में जल रहा है, विकर्मों के कुचक्र में फंसा हुआ है, तमोगुणी संस्कारों के भंवर में पड़ा है और दुःख तथा अशान्ति से कराह रहा है, तब कल्याणकारी परमपिता शिव ने अपना जो परिचय दिया है तथा योग की जो सहज विधि सिखाई है उसी सहज विधि के नियमित अभ्यास से कमों को श्रेष्ठ, विकर्मों को दग्ध तथा संस्कारों को शुद्ध किया जा सकता हैं।

इसके पश्चात् सांय काल 06.30 बजे के सत्र में “घर बने मंदिर” विषय पर कार्यक्रम का आयोजन किया गया जिसमे इस की वर्तमान समय आवश्यकता पर सेंटर प्रभारी राजयोगिनी बी के आदर्श दीदी ने विस्तार से प्रकाश डाला उन्होंने कहा परिवार को नारी ही संजोती है गृह लक्ष्मी के रूप में फिर चाहे सास हो या बहू । लेकिन जब दोनों में सामंजस्य नही होता तो वही घर मंदिर की जगह केवल ईंट पत्थर का मकान रह जाता है । जहाँ सुकून मिलना चाहिए वहीं से विरक्ति होने लगती है और घर टूटने लगते हैं । लोग अब संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार लेते जा रहे है और यह क्रम यहीं नहीं रुकता बच्चे और माता पिता भी एकाकी जीवन जी रहे है अतः हमें अपनी उसी भारतीय परंपरा में आना होगा घर को फिर से मंदिर जैसा बनाना होगा।
राजस्थान के भीनमाल से आयी हुयी राजयोगिनी बी के गीता दीदी जी ने घर की बहुत सुंदर व्यख्या करते हुए कहा कि घर वह स्थान है जहाँ देवी देवता रहते हैं और उस स्थान को मंदिर कहते हैं। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि जिस तरह सर समुद्रमंथन के बाद बहुमूल्य वस्तुओं के साथ विष और अमृत निकला था । उसी प्रकार जीवन भी समुद्र मंथन की तरह है जिसमे विष अमृत दोनों ही है । विष रूपी कई जहरीली बातों को हमे पचाना पड़ता है तब जीवन मे अमृत की प्राप्ती होती है और जीवन सुखमय होता है । घर की लक्ष्मी नारी है उसका लक्ष्य है घर को सुखमय बनाना उसका प्रतीक है महा लक्ष्मी पूजा । हम दीपावली पर धन लक्ष्मी की पूजा करते हैं यह नारी की समृद्धि का प्रतीक है।
हम लक्ष्मी जैसा कैसे बने उसके लिये योग तपस्या का अभ्यास कराया । आज के कार्यक्रम मे सास और बहुओं को बुला कर उन्हें उनका महत्व समझा कर बहुओं को सास के द्वारा चुनरी उड़ा कर एवं उनकी आरती उतारी गई ।और एक दूसरे से गले मिली मन ही मन एक दूसरे के लिए शुभ भावना के साथ रहने की प्रतिज्ञा की। बहुत ही सुंदर दृश्य था सास बहू दोनो की आँखों से अश्रु की धारा बह रही थी। गीता दीदी ने अपने वक्तव्य से माहौल बदल दिया सभी भावुक हो गये । और अपने घर को मंदिर बनाने का संकल्प लिया । विशिष्ट अतिथि के रूप में आज मंच पर समाज सेवी जहान्वी रोहिरा और समाज सेवी आशा सिंह उपस्थित थी । जहान्वी रोहिरा ने शुभ कामनाएं देते हुए कहा कि आज सास को अपने दृष्टिकोण को बदलने की बहू को अपनी बेटी की तरह समझे ताकि वह सुचारू रूप से चल सके । आशा सिंह ने अपने शुभ भावनायें व्यक्त करते हुये कहा कि जब हर घर मंदिर बनेगा तभी एक सुंदर समाज के निर्माण होगा और तभी भारत विश्व गुरु बनेगा।
इस अवसर पर बी.के. ज्योति बहन, बी.के.सुरभि, बी.के. लक्ष्मी, बी.के. डॉ. गुरुचरण, बी.के. प्रहलाद, बी.के.पवन, बी.के.जीतू, बी.के. विजेंद्र, बी.के. संजय सहित अनेकानेक भाई एवं बहनें उपस्थित रहे।


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