Edited by Maqsood Ali, नई दिल्ली, NIT; सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जजों ने पिछले दो महीने के बिगड़े हालातों के चलते अपनी बात रखने के लिए प्रेस का सहारा लिया। जजों ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था ठीक नहीं चल रही है। सीजेआई के बाद ये चार सीनियर जजों का पद आता है, उनकी ओर से प्रेस कॉन्फ्रेंस पर खलबली मच गई है। कॉन्फ्रेंस जस्टिस रंजन गोगई, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस जमलेश्वर और जस्टिस मदन भीमराव ने की है।
जजों ने अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि न्यायपालिका में सब कुछ ठीक नहीं है और अगर ऐसा ही रहा तो लोकतंत्र नहीं चल सकता। जजों ने कहा कि कल को कोई ऐसा न कह दे की हमने अपनी आत्मा बेच दी है।
इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद कोई इसे न्यायपालिका के इतिहास का ” काला दिन” बता रहा है, तो कोई लोकतांत्रिक गौरव का “ऐतिहासिक दिन”! मेरा मानना है कि ये देश और लोकतंत्र के हित में ये एक ” न्यायिक विद्रोह” है।1857 के ‘सिपाही विद्रोह’ की, घटनाओं के आधार पर इससे तुलना नहीं की जा सकती, किन्तु, भावांश सदृश हैं। तब भी, आज भी तानाशाही प्रवृत्ति के खिलाफ विद्रोह स्पष्टतः परिलक्षित है। अतः सर्वोच्च न्यायलाय के चारों न्यायधीशों चेलमेश्वर, कुरियन जोसेफ, मदन लोकुर और रंजन गोगोई को सैल्यूट।
ऐतिहासिक इसलिए कि न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार स्वयं न्यायाधीश, लोकतंत्र के असली, बल्कि अंतिम न्यायालय, जनता न्यायालय में पहुंच न्याय की गुहार लगाते दिखे। एक ऐसी अनहोनी जिसके परिणाम दूरगामी होंगे। सवाल है कि इन्हें’जन अदालत’ में आने को विवश क्यों होना पड़ और ये भी कि संविधान की रक्षा के जिम्मेदार लोकतंत्र के इन प्रहरियों को ये क्यों कहना पड़ा कि ‘लोकतंत्र खतरे में है ’सबसे महत्वपूर्ण, बल्कि खतरनाक टिप्पणी कि ”मुख्य न्यायाधीश पर फैसला देश करे!”।
विचारणीय है कि लोकतंत्र के तीनों घोषित स्तंभों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण न्यायपालिका के सर्वो च्चन्यायलाय में वरीयताक्रम में दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवे नंबर के जजों को अघोषित चौथे स्तंभ का सहारा क्यों लेना पड़ा? जाहिर है कि उन्होंने अंतिम उपाय के रूप में ही इस माध्यम का सहारा लिया है।
इन चारों न्यायधीशों की नाराज़गी मुख्यतः प्रधान न्यायाधीश की कार्यप्रणाली-संदिग्ध कार्यप्रणाली को ले कर है। नियम व सामूहिक निर्णय की परंपरा के विपरीत मनमानी ढंग से काम करने का आरोप लगाते हुए इन न्यायधीशों ने कहा कि वरिष्ठों की उपेक्षा कर महत्वपूर्ण मामले कनिष्ठों को सौंपे जा रहे हैं। नतीजतन, न्यायपालिका की निष्ठा पर सवाल खड़े होने लगे हैं। संस्थान की छवि खराब हो रही है। सर्वोच्च न्यायलाय का प्रशासन सही तरीके से काम नहीं कर रहा है, अगर यही रहा तो लोकतंत्र नहीं चलेगा।
क्या सिर्फ इन्हीं बातों को बताने के लिए चारों न्यायधीश ‘विद्रोही’ की भूमिका में आ गए? सहसा विश्वास नहीं होता। निश्चय ही कारण कुछ और होंगे। ऐसे गंभीर-विस्फोटक कारण जिन पर से पर्दा उठना अभी शेष है। ध्यान रहे, दीपक मिश्रा के भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर आसीन होने के साथ ही अनेक शंकाएं प्रकट की गई थीं। उनके कुछ फैसलों पर सवाल खड़े हुए। दबी ज़ुबान से ही सही, सत्ता के प्रति इनके झुकाव की चर्चाएं होती रहीं।
एक विद्रोही न्यायाधीश रंजन गोगोई ने 1 दिसंबर, 2014 को जस्टिस बी एच लोया की नागपुर में हुई संदिग्ध मौत की जांच की ओर इशारा कर पूरे प्रकरण को रहस्यमय बना डाला है। शुक्रवार 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में लोया की मौत से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई भी होनी थी।
जस्टिस लोया सोहराबुद्दीन फ़र्ज़ी मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थे। इस मामले में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी आरोपी थे। मामले की गंभीरता को देखते हुए सर्वोच्च न्यायलाय ने इसे गुजरात से महाराष्ट्र स्थानांतरित कर दिया था। शाह अदालत में पेश नहीं हो रहे थे। इस पर पहले सुनवाई कर रहे जज ने 6 जून 2014 को शाह को फटकार लगाते हुए 26 जून को पेश होने का आदेश दिया। आश्चर्य कि सुनवाई की तारीख के एकदिन पूर्व, 25 जून को उक्त जज का तबादला मुंबई से पुणे कर दिया गया। उनकी जगह श्री लोया आये। उन्होंने भी शाह की अनुपस्थिति पर सवाल उठा नाराजगी जाहिर की और15 दिसंबर 2014 को सुनवाई की तारीख निश्चित कर शाह को उपस्थित होने का आदेश जारी किया, लेकिन, 1 दिसंबर को एक विवाह में सम्मिलित होने नागपुर आये जस्टिस लोया को अचानक दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई। उनके परिवार के सदस्यों ने मौत पर संदेह प्रकट करते हुए जांच की मांग की।
रहस्यमय कि जस्टिस लोया के स्थान पर सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले की सुनवाई के लिए आये नये जज एम बी गोसवी ने पहली ही सुनवाई में अमित शाह को बरी कर दिया था।
आज उसी सोहराबुद्दीन मुठभेड़ कांड की जांच के लिए दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई भी होनी थी। चार जजों के विद्रोह के तार इस मामले से कितने जुड़े हैं, ये तो समय बताएगा मगर इतना तो तय है कि “विद्रोह” में अनेक रहस्य छुपे हुए हैं। लोकतंत्र पर खतरे की बात सर्वोच्च न्यायलाय के चार वरिष्ठ जज यूं ही नहीं करेंगे।
हाल के दिनों में देश की संवैधानिक संस्थाओं को तहस-नहस करने के आरोप केंद्र सरकार पर लगते रहे हैं। न्यायपालिका में भी हस्तक्षेप की बातें कही जाती रही हैं।
चारों विद्रोही जजों ने मीडिया के सामने आने का कारण पानी के सिर के ऊपर से गुजर जाना बताते हुए ये भी कहा है कि वे लोकतंत्र के पक्ष में अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे हैं, ताकि बाद में कोई उन पर ज़मीर बेच देने का आरोप न लगा सके। साफ है कि मामला काफी गंभीर है और अभी अनेक”रहस्य” उजागर होने शेष है।
चारों जजों द्वारा”षजनता की अदालत” के महत्व को चिन्हित करना भी स्वागतयोग्य है: एस. एन. विनोद
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