अमेरिका गो बैक फ्रॉम एशिया ! विश्व महाशक्ती भारत को चाहिये वो अशांत एशिया क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए आगे आए : मो. तारिक | New India Times
लेखक: मो. तारिक

भोपाल (मप्र), NIT;

अमेरिका गो बैक फ्रॉम एशिया ! विश्व महाशक्ती भारत को चाहिये वो अशांत एशिया क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए आगे आए : मो. तारिक | New India Times

अमेरिका ने अपने स्वार्थों की खातिर जिस तरह महाशक्ती बनने के लिए एशिया को अशांत रख कर जिन भी देशों का संरक्षण किया वह देश आंतकवाद और आतंकवादी घटनाओं की भैंट चढ़ता चला गया या एशिया के बाहरी हस्तछेप को भांपते हुये दूसरी महाशक्ती बनने की लालसा वाले देश भी उससे पीछे नहीं, वो उसके परस्पर समर्थित देश को संरक्षण देकर एशिया में अशांति फैला कर कच्चे ईधन के बदले अपने हथियारों की बिक्री करते रहे हैं! बस यही चलता आ रहा है और हमारी खामौशी से यह और बढ़ता फलता फूलता जा रहा है जिसके लिए पहल भारत को ही करनी होगी वो भी कड़े रुख रवैये के साथ।

अमेरिका गो बैक फ्रॉम एशिया
अमेरिका गो बैक फ्रॉम एशिया ! विश्व महाशक्ती भारत को चाहिये वो अशांत एशिया क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए आगे आए : मो. तारिक | New India Times

अमेरिका का एशिया में दखल इज़रायली-फिलिस्तीनी संघर्ष (1948) जो अभी तक जारी है।

इज़राइल और फिलिस्तीनियों के बीच का एक संघर्ष (1948) है। यह अरब-इजराइल संघर्ष की एक लम्बी कड़ी है। वास्तव में, यह दो समूहों के बिच एक ही क्षेत्र पर किये गए दावे का संघर्ष है। द्वि-राज्य सिद्धांत के लिए यहाँ कई प्रयास किये गए, जिसमें इजराइल से अलग एक स्वतंत्र फिलिस्तीन राज्य बनाने के लिए कहा गया था। वर्तमान में इजराइली और फिलिस्तीनियों की बहुमत चाहती है की (कई मुख्य मत (पोल) के अनुसार) द्वि-राज्य सिद्धांत पर इस संघर्ष को ख़त्म कर दिया जाये। कई फिलिस्तीनी हैं जो पश्चिम किनारे और गाज़ा पट्टी को भविष्य का अपने राज्य के रूप में देखते हैं, जिस नजरिये को कई इजराइलियों ने स्वीकारा भी है। कुछ शिक्षाविद एक-राज्य सिद्धांत की वकालत करते हैं और पुरे इजराइल, गाज़ा पट्टी और पश्चिम किनारे को एक साथ रखकर, दो राष्ट्रीयता को एक साथ रखकर एक राज्य बने जिसमें सब के लिए समान अधिकार हो। यद्यपि कुछ ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं जिनके कारण किसी भी अंतिम निर्णय पर पहुँचने में दोनों पक्ष में असंतोष दिखाई देता है और दोनों पक्षों में एक दूसरे के ऊपर विश्वास का स्तर भी कमजोर है। हर एक पक्ष में कुछ बुनियादी प्रतिबद्धता कायम रखे हुए दिखाई देता है।

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अमेरिका का दूसरा दखल अफगानिस्तान सन 1978

अफ़ग़ानिस्तान युद्ध की शुरुआत सन 1978 में सोवियत संघ द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में किये हमले के बाद हुयी। सोवियत सेना ने अपनी जबरदस्त सैन्य क्षमता और आधुनिक हथियारों के दम पर बड़ी मात्रा में अफ़ग़ानिस्तान के कई इलाकों पर कब्ज़ा कर लिया। सोवियत संघ की इस बड़ी कामयाबी को कुचलने के लिए इसके पुराने दुश्मन अमेरिका ने पाकिस्तान का सहारा लिया। पाकिस्तान की सरकार अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत सेना को खदेड़ने के लिए सीधे रूप में सोवियत सेना से टक्कर नहीं लेना चाहती थी इसलिए उसने तालिबान नामक एक ऐसे संगठन का गठन किया जिसमें पाकिस्तानी सेना के कई अधिकारी और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को जेहादी शिक्षा देकर भर्ती किया गया। इन्हें अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सेना से लड़ने के लिए भेजा गया तथा इन्हें अमेरिका की एजेंसी सीआईए द्वारा हथियार और पैसे मुहैया कराये गए। तालिबान की मदद को अरब के कई अमीर देश जैसे सऊदी अरब, इराक आदि ने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से पैसे और मुजाहिदीन मुहैया कराये। सोवियत हमले को अफ़ग़ानिस्तान पर हमले की जगह इस्लाम पर हमले जैसा माहौल बनाया गया जिससे कई मुस्लिम देशों के लोग सोवियत सेनाओं से लोहा लेने अफ़ग़ानिस्तान पहुँच गए। अमेरिका द्वारा मुहैया कराए गए आधुनिक हथियार जैसे हवा में मार कर विमान को उड़ा देने वाले राकेट लॉन्चेर, हैण्ड ग्रैनेड और एके 47 आदि के कारण सोवियत सेना को कड़ा झटका लगा एवं अपनी आर्थिक स्तिथि के बिगड़ने के कारण सोवियत सेना ने वापिस लौटने का इरादा कर लिया। सोवियत सेना की इस तगड़ी हार के कारण अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान और अल कायदा के मुजाहिदीनों का गर्म जोशी से स्वागत और सम्मान किया गया। इसमें मुख्यतः तालिबान प्रमुख मुल्ला उमर और अल कायदा प्रमुख शेख ओसामा बिन लादेन का सम्मान किया गया। ओसामा सऊदी के एक बड़े बिल्डर का बेटा होने के कारण बेहिसाब दौलत का इस्तेमाल कर रहा था। युद्ध के चलते अफ़ग़ानिस्तान में सरकार गिर गयी थी जिसके कारण दोबारा चुनाव किये जाने थे किन्तु तालिबान ने देश की सत्ता अपने हाथों में लेते हुए पूरे देश में एक इस्लामी धार्मिक कानून शरीअत लागू कर दिया जिसे सऊदी सरकार ने समर्थन भी दिया।

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इराक ईरान युध्द 1980-88, एक अमेरिकी षडयंत्र

सन 1980 के दशक में अमेरिका ने अपनी गिरती हुई अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए और पैसा कमाने के लिए एक ऐसा घृणित खूनी खेल खेला जिसके बारे में आज बहुत कम लोग जानते हैं। हम बात कर रहे हैं इराक-ईरान युध्द की जो कि 1980 से 1988 तक चला तथा कुल 90 लाख लोगों के खून से इराक एवं ईरान की धरती रंग गई। बिना किसी बड़े कारण के ये दोनों देश लगभग एक दशक तक लड़ते रहे और इस युद्ध से अमेरिका तथा अन्य सहयोगी हथियार निर्यातक देश मोटी कमाई करते रहे और अन्त में यह युद्ध अनिर्णीत समाप्त हुआ। जानिए कैसे अमेरिका और उसके सहयोगियों ने इराक और ईरान के बीच युद्ध को भड़का कर खूनी खेल खेला और संय़ुक्त राष्ट्र स्वयं तब तक इसका मूकदर्शक जब तक कि दोनों देश दीवालिया नहीं हो गये। इसका परिणाम यह हुआ कि ये दोनों देश आतंकवाद, राजनीतिक अस्थिरता तथा कमजोर अार्थिक स्थिति का शिकार हैं।

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संयुक्त राष्ट्र प्रारम्भ में मूकदर्शक बना रहा। दोनों देश संयुक्त राष्ट्र पहुँच गए, और संयुक्त राष्ट्र में खुद अमेरिकी राजदूत ने उन्हें युध्द की सलाह दे डाली। उस समय इराक का राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन अमेरिका का खास दोस्त था। वहीं ईरान का झुकाव थोड़ा रूस की ओर था, मगर रूस में आंतरिक तनाव शुरू हो गए थे, रूस विदेश नीति पर फैसला लेने की स्थिति में नहीं था। युद्ध का प्रारम्भ और अमेरिका की हथियार कम्पनियों का मोटा मुनाफा ईरान को अकेला समझकर सद्दाम हुसैन ने युध्द छेड़ दिया। 10 सालों तक दोनों देश कुत्ते बिल्ली की तरह लड़े। दोनों एक ही संस्कृति, एक ही धर्म के देश हैं मगर कुल 90 लाख लोगों को मार डाला। अमेरिका की आधी कंपनियों ने ईरान को और आधी कंपनियों ने इराक को हथियार बेचे। मोटा मुनाफा कमाने के बाद अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र की युद्ध विराम की अपील की। 10 साल जब दोनों लड़ चुके थे और अमेरिका के हथियार बिक गए तो अमेरिका ने सुलह करवा दी, अमेरिका ने यह सुझाव दिया की वहाँ खुदाई करते हैं और जितना भी तेल निकलेगा उसे दोनों देश आधा आधा बाँट लेना। तो भाई ये बात आप 10 साल पहले भी बोल सकते थे, तब तो अमेरिका ने ही युद्ध की सलाह दी थी। युद्ध के बाद यहीं से सद्दाम हुसैन अमेरिका के खिलाफ हो गया और बयानबाजी करने लगा। बाद में खाड़ी युद्ध भी अमेरिका ने ईराक पर फर्जी आरोप लगाकर ही किया। वहीं ईरान का भी विश्वास अब अमेरिका से उठ गया था। इसलिए ईरान ने एशिया की 3 महाशक्ति रूस, चीन और भारत से सम्बंध मजबूत किये, मगर खाड़ी युद्ध में सद्दाम हुसैन की सरकार खत्म करने के बाद इराक आतंकवाद की राह पर निकल पड़ा।

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सीरिया में अमेरिका का असद को अप्रत्यक्षय समर्थन, शिया शुन्नी मामलों को हवा

सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल-असद के ख़िलाफ़ 6 साल पहले शुरू हुई शांतिपूर्ण बगावत पूरी तरह से गृहयुद्ध में तब्दील हो चुकी है। इसमें अब तक 3 लाख लोग मारे जा चुके हैं। इस गृहयुद्ध में पूरा देश तबाह हो गया है और दुनिया के ताक़तवर देश भी आपस में उलझ गए हैं।

युद्ध कैसे शुरू हुआ ?

संघर्ष शुरू होने से पहले ज़्यादातर सीरियाई नागरिकों के बीच भारी बेरोज़गारी, व्यापक भ्रष्टाचार, राजनीतिक स्वतंत्रता का अभाव और राष्ट्रपति बशर अल-असद के दमन के ख़िलाफ़ निराशा थी। बशर अल-असद ने सन 2000 में अपने पिता हाफेज़ अल असद की जगह ली थी। अरब के कई देशों में सत्ता के ख़िलाफ़ शुरू हुई बगावत से प्रेरित होकर मार्च 2011 में सीरिया के दक्षिणी शहर दाराआ में भी लोकतंत्र के समर्थन में आंदोलन शुरू हुआ था। अमेरिका के राष्ट्र प्रमुख का दिखावी ब्यान कि सीरिया के राष्ट्रपति असद तानाशाह हैं। ट्रंप यह भूल गए की इसके पूर्व ऐसे देशों के खिलाफ़ अमेरिका ने कौन कौन सी चालें चल देशों को आपस में लड़ाया तो फिर बस एक ब्यान देकर पीछा छुड़ाया है या साज़िश कोई ओर बड़ी है ? सीरिया की असद सरकार को यह असहमति रास नहीं आई और उसने आंदोलन को कुचलने के लिए क्रूरता दिखाई। सरकार के बल प्रयोग के ख़िलाफ़ सीरिया में राष्ट्रीय स्तर पर विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गया और लोगों ने बशर अल-असद से इस्तीफे की मांग शुरू कर दी।

सीरिया में रासायनिक हमला, 58 की मौत अमेरिका खामौश क्यों ?

वक्त के साथ आंदोलन लगातार तेज होता गया। विरोधियों ने हथियार उठा लिए। अमेरिका जवाब दे हथियार कहां से आए ? विरोधियों ने इन हथियारों से पहले अपनी रक्षा की और बाद में अपने इलाक़ों से सरकारी सुरक्षाबलों को निकालना शुरू किया। असद ने इस विद्रोह को ”विदेश समर्थित आतंकवाद’ करार दिया और इसे कुचलने का संकल्प लिया। उन्होंने फिर से देश में अपना नियंत्रण कायम करने की कवायद शुरू की। दूसरी तरफ विद्रोहियों का ग़ुस्सा थमा नहीं था, वे भी आरपार की लड़ाई लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार रहे। इस वजह से दोनों पक्षों के बीच हिंसा लगातार बढ़ती गई और शिया सुन्नी की राजनीती करने वाले भी फलते-फूलते रहे।

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उत्तर कोरिया विवाद में तृतिया विश्व युध्द न करा दें अमेरिका और रूस, जैसे पहला- द्वितिया विश्व युध्द कराया था अमेरिका और रूस (सोवियत संघ) ने ?

1910 में, कोरिया साम्राज्य पर जापान के द्वारा कब्जा कर लिया गया था। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में जापानी आत्मसमर्पण के बाद, कोरिया को संयुक्त राज्य और सोवियत संघ द्वारा दो क्षेत्रों में विभाजित कर दिया गया, जहाँ इसके उत्तरी क्षेत्र पर सोवियत संघ तथा दक्षिण क्षेत्र पर अमेरिका द्वारा कब्ज़ा कर लिया गया। इसके एकीकरण पर बातचीत विफल रही, और 1948 में, दोनों क्षेत्रों पर अलग-अलग देश और सरकारें, उत्तर में सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक पीपुल रिपब्लिक ऑफ कोरिया और दक्षिण में पूंजीवादी गणराज्य कोरिया बन गईं। दोनों देश के बीच एक यूद्ध (1950-1953) भी लड़ा जा चूका है। कोरियाई युद्धविधि समझौता से युद्धविराम तो हुआ, लेकिन दोनों देशों के बीच शांति समझौता पर हस्ताक्षर नहीं किए गए। उत्तर कोरिया आधिकारिक तौर पर खुद को आत्मनिर्भर समाजवादी राज्य के रूप में बताता है और औपचारिक रूप से चुनाव भी किया जाता है। हालांकि आलोचक इसे अधिनायकवादी तानाशाही का रूप मानते हैं, क्युकि यहाँ की सत्ता पर किम इल-सुंग और उसके परिवार के लोगों का अधिपत्य है। कई अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के अनुसार उत्तर कोरिया में मानवाधिकार उल्लंघन का समकालीन दुनिया में कोई समानांतर नहीं है। सत्तारूढ़ परिवार के सदस्य की अगुवाई में कोरिया की श्रमिक पार्टी (डब्ल्यूपीके), देश की सत्ता चलाती है और दोनों देशो के पुनर्मिलन के लिए डेमोक्रेटिक फ्रंट का नेतृत्व करता है, जिसमें सभी राजनीतिक अधिकारियों के सदस्य होने की आवश्यकता होती है लेकिन अमेरिका ने कोरिया का पिछला बंटवारा न देखा क्योंकि उत्तर कोरिया के पूर्वज भी एक कोरिया ही चाहते रहे हैं।

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डोनाल्ड ट्रंप ने कहा तालिबान से वार्ता नहीं उसका खात्मा करेंगे !!! जल्द ही परमाणु हमला कर सकता है नार्थ कोरिया सीआईए के डायरेक्टर को सता रही चिंता !!!

अब भला आप बतलाईये तो ज़रा जो बोया उसे तो अमेरिका को काटना होगा लेकिन कौप भाजन एशिया महादीप क्यों बने यह भी तो सोचना होगा और इसके लिए भारत, चीन, रूस, जापान को एक साथ एक मंच पर आना होगा और साथ मिलकर कहना होगा “अमेरिका गो बैक फ्रॉम एशिया”, फिर देखिये।

“अब तो फिर यह वैचारिक द्वंद्व है !”

मो. तारिक़” (स्वतंत्र-लेखक)


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