अखातीज का चंद दिखा, आदिवासी समाज के नव वर्ष का हुआ आगाज, परंपरागत त्योहार पर सभी समाज जनों को जिला कोर कमेटी ने दी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं | New India Times

रहीम शेरानी हिदुस्तानी, अलीराजपुर (मप्र), NIT:

अखातीज का चंद दिखा, आदिवासी समाज के नव वर्ष का हुआ आगाज, परंपरागत त्योहार पर सभी समाज जनों को जिला कोर कमेटी ने दी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं | New India Times

आदिवासी परंपरा एवं मान्यता के अनुसार अखातीज का चांद जब दिखाई देता है तब से ही नव वर्ष की शुरुआत मानी जाती है।

आदिवासी समाज की परंपरा, संस्कृति, दर्शन व जीवन मूल्य प्रकृति पर आधारित है। प्रकृति में मौसम के अनुसार बदलाव के अनुसार ही आदिवासी समाज में तीज, त्यौहार व पर्व मनाए जाते हैं।
आदिवासी कर्मचारी अधिकारी संगठन (आकास) जिला महासचिव एवं जिला कोर कमेटी के सदस्य भंगुसिंह तोमर ने कहा कि मौसम के अनुसार वाद्य यंत्र बजाए जाते हैं, मौसम के अनुसार गीत गाए जाते हैं। इसीलिए आदिवासी समाज की पहचान प्रकृति पूजक व प्रकृति रक्षक के रूप में होती है। जब दुनिया में घड़ी का आविष्कार नहीं हुआ था तब आदिवासी समाज के लोग सूर्य और चांद की आसमान में स्थिति को देखकर समय का अनुमान लगा लेते थे। जब दुनिया में मौसम चक्र बारे में पूर्वानुमान लगाने संबंधी कोई यंत्र तंत्र नहीं बने थे तब से आदिवासी समाज आसमान में आने वाले बादलों के प्रकार से ही कितने महीने पश्चात कौन से समय और कहां पर बारिश हो सकती है यह अनुमान लगा लेता था। जंगलों में आने वाले फूलों, फलों व पत्तियों को देखकर यह अनुमान लगा लेते थे कि इस वर्ष कौन सी फसल अच्छे से होने वाली है अर्थात प्रकृति का अध्ययन इतनी सूक्ष्मता से आदिवासी समाज के लोग कर लेते थे। आदिवासी समाज का प्रकृति के साथ सानिध्य व संवादिता के कारण ही वह प्रकृति की भाषा समझता था। वह प्रकृति से उतना ही लेता था जितना कि उसकी आवश्यकता हैं। कभी प्रकृति को नुकसान पहुंचाने की भावना मन में आती ही नहीं थी। वह जल, जंगल, जमीन, हवा, चांद, सूरज व आसमान आदि की पूजा करता है अर्थात यदि कोई किसी वस्तु पूजा करता है तो उसे नुकसान पहुंचाने की भावना मन में कभी नहीं आ सकती है।

श्री तोमर ने कहा कि जब तक दुनिया में पूंजीवादी विचारधारा पैदा नहीं हुई, व्यक्तिगत स्वार्थ या संग्रहण की प्रवृत्ति नहीं आई तब तक पर्यावरण का संतुलन अपवादों को छोड़कर अति सुंदर था। नदियों में पानी बारहमास रहता था, जंगलों में हरियाली हुआ करती थी, चिड़ियाओं के चहचहाने की आवाज सुनाई देती थीं, जंगलों में तरह तरह के फूल खिले हुए देखने को मिलते थे, नाना प्रकार की जड़ी बूटियां मिलती थी। शरीर को लगने वाले आवश्यक तत्व हमें प्रकृति से ही मिल जाया करते थे। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता जबरदस्त हुआ करती थी। कम से कम बीमारियां फैलती थीं और उसका इलाज प्रकृतिदत्त जड़ी बूटियों से ही हो जाया करता था। लोगों के बीच में भाईचारा की भावना हुआ करती थी। सामूहिकता व सहचर्य पर आधारित जीवन हुआ करता था। किंतु आज के इस युग में जिसे विकासवाद कहते हैं, वैज्ञानिक युग कहते हैं, जमाना आगे बढ़ चुका है ऐसा कहते हैं लेकिन आप स्वयं ही समीक्षा कीजिए कि हमने क्या खोया है और क्या पाया है।

विकास के नाम पर पर्यावरण व प्रकृति का कितना विनाश किया है, सबको ज्यादा चाहिए व संग्रहण की भावना से सारे जंगल काट दिए गए, नदिया रोक दी गई हैं, जमीन को खोद दिया गया है, आसमान में चारों और धुआं ही धुआं दिखाई देता है। समय पर बारिश नहीं होती है, बेमौसम बारिश होती है, सर्दी कम पड़ने लगी है, गर्मी अत्याधिक बढ़ने लगी है, बीमारियां महामारी का रूप लेने लगी हैं, अस्पतालों की संख्या दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ रही हैं। अपराधों की संख्या बढ़ रही है। लोग एक दूसरे को दुश्मन समझने लगे हैं। भाईचारे व आपसी सामंजस्य नाम की चीज बची नहीं है, सहचर्य का जीवन बचा नहीं है। आदिवासी समाज भी विकास के इस मकड़जाल में दिग्भ्रमित हो रहा है। ऐसे समय व परिस्थिति में भी अपनी परंपरा को बचाए रखना अपनी संस्कृति, जीवन मूल्य व दर्शन को बचाए रखना आदिवासी समाज के लिए एक बड़ी चुनौती है। विकासवाद के प्रवर्तकों को सोचना ही पड़ेगा की प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हुए हम सुरक्षित नहीं रह सकते हैं और आदिवासी समाज की परंपरा, रीति रिवाज, संस्कृति व जीवन मूल्य प्रकृति की रक्षा करने में सहायक हो सकते हैं। इसलिए आदिवासी समाज के लोग अपनी संस्कृति, परंपरा, जीवन मूल्य बचाए रखें। यह हम सबके व दुनिया के हित में है। अन्य समाज के लोगों को भी आदिवासी समाज से सीखने की आवश्यकता है। उनके जीवन मूल्यों को अपनाने की आवश्यकता है ना कि उन्हें अलग-अलग प्रकार की परिभाषा देते हुए नकारने की आवश्यकता है। झूठे व विनाशक अहंकारों से बाहर निकल कर आने की आवश्यकता है। प्रकृति का संतुलन बना रहेगा तो हम सब का जीवन हंसी-खुशी व प्रसन्नता से भरा हुआ होगा।
आदिवासी समाज के लोग आखातीज के चांद को देखकर नव वर्ष की शुरुआत मानते हैं। इस दिन घर परिवार के बड़े बूढ़े लोग जब चांद दिखाई देता है तब लोटे में पानी, हाथ में अनाज व करेंसी रुपैया जमीन पर रखकर पानी व अनाज प्रकृति को समर्पित करते हुए अच्छी फसल, सुख-शांति व दुनिया में अमन चैन की कामना करते हैं। आदिवासी परंपरा अर्थात मूल परंपरा बचेगी तो दुनिया के हित में होगा। आदिवासी समाज जिला कोर कमेटी अलीराजपुर ने देश, प्रदेश एवं जिले वासियों को नव वर्ष अखातीज बधाई एवं मंगल शुभकामनायें दी।

By nit

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

This website uses cookies. By continuing to use this site, you accept our use of cookies. 

Discover more from New India Times

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading