नरेंद्र इंगले, ब्यूरो चीफ, जलगांव (महाराष्ट्र), NI
2.0 जो कि एक कंपुटर साफ्टवेयर है उसी के नाम से बनी रजनीकांत की फ़िल्म 2.0 ने जलवायु परीवर्तन और रेडिएशन के बढते खतरे के बारे में जनता को अच्छा संदेश दिया था। केंद्र मे विशाल जनादेश से वापसी कर चुकी मोदी सरकार को मीडिया ने इसी 2.0 साफ्टवेयर से जोड़कर उसका महिमामंडन तो किया लेकिन आर्थिक मंदी कि भयावहता से निपटने को लेकर यही मीडिया की 2.0 वाली मोदी सरकार सभी मोर्चो पर फेल साबित हो रही है। राष्ट्रीय स्तर पर हजारों निजी तथा सार्वजनिक प्लांट बंद पड रहे हैं और लाखों लोगों के रोजगार छिन रहे हैं। रक्षा क्षेत्र में निगमीकरण के खिलाफ़ 90 हजार कर्मी सडको पर धरना देने को मजबूर हैं ऐसे में बडे शर्मनाक तरीके से 5 ट्रीलियन डालर की अर्थव्यवस्था का सपना बेचा रहा है। झारखंड, हरीयाणा, महाराष्ट्र इन तीन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं जिसके लिए 370 के रुप मे राष्ट्रवाद का नया झुनझुना बजाया जाना आरंभ कर दिया गया है। खैर आटोमोबाइल, स्पीनींग, स्टील उद्योगों में चल रही मंदी की भीषण लहर अब गांवों तक आ पहुची है।
जामनेर के स्टार्च फैक्टरी को बीते 5 महिनों से ताला पड चुका है जिसके कारण 350 स्थायी और 200 अस्थायी कुल 550 कर्मियों के रोजगार छिन चुके हैं। लाखों की छंटनी के बीच यह आंकडा कुछ मायने नहीं रखता पर 2.0 की शल्क में नायक की नाकामी से सफ़ल खलनायक का रुप ले चुकी मंदी ने सब कुछ चौपट कर दिया है। स्टार्च के मजदूर अपने लंबित वेतन और रोजगार बहाली के लिए मंत्रियों की चौखट पर एड़ियां रगड़ने को मजबूर हैं। कंपनी के वित्तीय संकट के लिए बैंकिंग सेक्टर के NPA तथा उत्पादों के लागत की तुलना में मिनिमम प्राईस रेट को मुख्य कारण बताया जा रहा है। तहसील की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी सुप्रिम कि हालत भी कुछ ठीक नहीं बतायी जा रही है। इन सब के बीच कंपनी सेक्टर में एक और ऐसा बिंदु है जिसपर कटाक्ष करने से शायद सब डरते हैं लेकिन जानते सब लोग हैं और वह है डोनेशन तथा वर्चस्ववादिता सिस्टम जिसके बढ़ते हस्तक्षेप की वजह से प्लांट धारक खासे परेशान रहते हैं। स्थानीय मीडिया इस पर लिख नहीं पाता और पीड़ित सेक्टर खुलकर बोल नहीं सकता और इसी बेबसी को हथियार बनाकर वर्चस्ववादियों का कामकाज फलताफुलता रहता है। जामनेर तहसिल में किसी समय कुछेक सहकारी प्लांट खड़े तो किए गए लेकिन चल नहीं सके या चलने नहीं दिए गए बाद में स्टार्च की तरह कुछ निजी कंपनियों को बेचे गए जिनके चल पड़ने के बाद वह उक्त रुप से कबाड में तब्दील होने को विवश हैं। खेती के सिवाय क्षेत्र मे रोजगार का कोई शाश्वत जरिया नहीं है हां राजनीति शायद हो सकता है क्योंकि चुनाव निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जिसके लिए मानव संसाधन की आवश्यकता होती है।
कमजोर मानसून के कारण वाघुर डैम मे महज 45 फीसद जलसंचय है छोटे मोटे बाँध लबालब है अब यह आशा करना भी बेईमानी होगी कि खेती की सिंचाई को 24 घंटे पानी मिलेगा क्योंकि यह सपना बिक बिक कर कब का निलाम इस लिए हो चुका है क्योंकि क्षेत्र के 5 जिला परीषद गुट के करीब 100 गांवों के लोग आज भी पीने के पानी के लिए तरस जाते हैं।
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