अरशद आब्दी, ब्यूरो चीफ झांसी, NIT:
लेखक: सैय्यद शहंशाह हैदर आब्दी
मेहनतकशों के आंदोलन का एक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय नारा है- ‘दुनियां के मज़दूरो एक हो’। हमारा भी मानना है कि जब तक वे एक नहीं होंगे, तब तक मानव मुक्ति संभव नहीं। इसलिए संघर्ष के हर रण क्षेत्र में यह नारा जोश भरे स्वर में लगाया जाता है।
आदतन हम इस नारे को, जो बदली हुई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, परिस्थितियों में पूरे जोशो ख़रोश से लगाते रहते हैं। लेकिन इस सवाल से कभी जूझने या उसके रूबरू खड़े होने की कोशिश नहीं करते कि दुनियां के मज़दूर एक कैसे हो सकते हैं?
कुछ नारे और हैं,”हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है।”, “चाहे जो मजबूरी हों – हमारी मांगें पूरी हों।” मगर कैसे?
यही वजह है कि दिनों दिन व्यावहारिक दृष्टि से यह नारे अपनी अर्थवत्ता खोते जा रहे हैं।
जब मज़दूर संगठन के अंदर ही आंतरिक गुटबाज़ी, परिवारवाद, जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म के आधार पर मात्र दो अंकों की कार्यकारिणी सदस्यों की संख्या में विभाजन कर संगठन पर क़ब्ज़ा करने की कोशिशें, ‘हम कुछ जानते नहीं, दूसरा कहे उसे मानते नहीं।’ जैसी अज्ञानता, बुज़ुर्ग साथियों से झूठ बोलना, उन्हें गुमराह करना, संगठन हित में दी गई उनकी सलाह को न मानना, क़ानूनन ग़लत सिध्द हो जाने के बाद भी ग़लती मानने के बजाये किसी भी तरह साज़िशन संगठन पर क़ब्ज़ा जमाये रखने की कोशिशें, कोई वैचारिक प्रतिबध्दता नहीं, अवसरवादिता की सीमा पार करते कभी वामपंथी, कभी समाजवादी, कभी धुर दक्षिणपंथी विचारधारा का पैरोकार बन जाना जैसी बुराईयाँ मौजूद हों, दो अंकों की कार्यकारिणी के सदस्यों को एक जुट रखने की नेतृत्व में क्षमता नहीं, और नारा – “दुनिया के मज़दूरो एक हो” का?
इरादा – सुसंगठित, सर्वगुण सर्वसाधन सम्पन्न प्रबंधन/पूंजीवाद के ख़िलाफ़ लड़ने का?
देश में पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था के विरोध का? देश में लोकतंत्र बचाने का? राजनीति में परिवारवाद के विरोध का? आदि आदि बड़े बड़े संकल्प। सिर्फ जुमलेबाज़ी नहीं यह?
अपना अस्तित्व बचाने में अक्षम, दूसरों के अस्तित्व को समाप्त करने की इच्छा।
कैसे संभव है यह?
अधिकांश श्रमिक संगठन ऐसी ही परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं।
फिर सत्ताधारी और अन्य राजनीतिक पार्टियों और प्रधानमंत्री जी का विरोध क्यों?
परिणाम, मज़दूर आंदोलन सिकुड़ता, सिमटता जा रहा है। संगठित क्षेत्र के मेहनतकशों की भी सामाजिक सुरक्षा में भारी कटौतियों, श्रम क़ानूनों में प्रबंधन और पूंजीपतियों के हित में संशोधन का रास्ता साफ है। जब संगठित क्षेत्र के श्रमिक आंदोलन का यह आलम है तो असंगठित क्षेत्र के मज़दूर आंदोलन की बात कौन करे?
हम सिर्फ श्रमिक आंदोलन के विरोधाभासों की तरफ इंगित करना चाहते हैं और इन विरोधाभासों को जब तक पाटा नहीं जाता, तब तक ‘दुनियां के मजदूरों एक हो’ का नारा और अन्य जोशीले नारे सिर्फ छलावा ही रहेंगे।
उपरोक्त अनुत्तरित सवालों का जवाब ढूंढे बग़ैर श्रमिक आंदोलन को बचाये रखना निरंतर कठिन होता जायेगा।
किसी भी प्रकार का कमज़ोर आंदोलन कोई इंक़लाब नहीं ला सकता। मज़बूत श्रमिक आंदोलन का अभाव यक़ीनन हर क्षेत्र में श्रमिकों के शोषण का रास्ता साफ करेगा और देश में लोकतंत्र को और कमज़ोर करेगा।
कहते हैं,”स्वीकार करने की हिम्मत और सुधार करने की नीयत हो तो इंसान बहुत कुछ सीख सकता है।” वर्तमान मज़दूर नेतृत्व को अपने गिरेबान में झांककर आत्मचिंतन, आत्ममंथन, आत्मावलोकन, आत्मनिरीक्षण कर अपने आचार विचार में बदलाव लाना ही होगा वरना संगठित मज़दूर आंदोलन की भी असमय मृत्यु निश्चित है।
सैय्यद शहंशाह हैदर आब्दी, समाजवादी चिंतक, झांसी।
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