मुस्लिम समुदाय को जकात-फितरा- खैरात व इमदाद का गांव-शहर स्तर पर एक मुनज्जम तरीका अख्तियार करने के साथ-साथ जकात-फितरा-खैरात व इमदाद को लूटेरों से भी बचाना होगा | New India Times

अशफाक कायमखानी, ब्यूरो चीफ, जयपुर (राजस्थान), NIT:

मुस्लिम समुदाय को जकात-फितरा- खैरात व इमदाद का गांव-शहर स्तर पर एक मुनज्जम तरीका अख्तियार करने के साथ-साथ जकात-फितरा-खैरात व इमदाद को लूटेरों से भी बचाना होगा | New India Times

माल की तादाद की शर्त अनुसार उसके एक साल उपयोग पर जकात देना जरुरी होने के बावजूद करीब करीब मुसलमान रमजान माह में एक साल मानकर मौजूद धन पर धार्मिक निर्देश के अनुसार चालीसवां हिस्सा जकात निकालते हैं। वहीं फितरा ईद की नमाज के पहले पहले देने के आदेश की पालना करनी होती है। इमदाद अपनी हैसियत के अनुसार की व दी जाती है। इन सबका एक मुनज्जम तौर पर प्रबंधन होकर इनका जरुरतमंद लोगों तक पंहुचना आवश्यक होता है। जबकि देखने व सूनने में आया है कि खासतौर पर रमजान माह में लूटरे अलग अलग भेष में आकर जकात-फितरा-खैरात व इमदाद लूटकर ले जाते हैं। जबकि यह उसके हकदार तक पहुंचना व पहुंचाना आवश्यक होती है। आज देखने में आ रहा कि इससे हकदार ही महरुम होते जा रहे हैं।
इस मामले को लेकर भारत भर में मुस्लिम समुदाय द्वारा कुछ जगह खास समूह व कुछ तंजीमों को छोड़कर बाकी तमाम जगह किसी तरह का खास प्रबंधन नहीं है। बैतूल माल के लिये स्थायी स्तर पर संगठन काम नहीं कर रहे हैं। जबकि इस धन का सकारात्मक उपयोग जरुरतमंद नजदीकी रिश्तेदार-पड़ोसी व आम भारतीय के हित में करके बडा काम किया जा सकता है।
गांव-ढाणी व शहर के अलावा बस्ती स्तर पर आम लोग जकात- फितरा व इमदाद के एक ढंग के प्रबंधन (बैतूल माल) की आवश्यकता को महसूस करते हुये चर्चा करते रहते हैं लेकिन अमल ऊंट के मुंह में जीरे समान भी नहीं हो रहा है। इस तरह का प्रबंधन नहीं होने के कारण अधीकांश लोग महाजनी सूद की चक्की में पीसकर चकनाचूर व अचानक आई विपदाओं से दो-चार हो रहे हैं। वहीं ऐसा प्रबंधन की कमी के चलते कुछ लोग अपने बच्चों को उच्च स्तर की शिक्षा तक दिला पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं।
उदाहरण के तौर पर राजस्थान के सीकर शहर पर नजर डालें तो पाते हैं कि करीब सवा लाख मुस्लिम आबादी निकाय क्षेत्र में है। जिनमें से अधिकांश फितरा देने की स्थिति में हैं। यानि 40 रुपये पर हेड देना होता है। वही जकात व इमदाद देने वालों की संख्या भी ठीक ठाक मानी जाती है। लेकिन बैतूल माल जमा करने के तौर पर छोटे-मोटे कुछ संगठनों को छोड़कर बाकी प्रबंधन के तौर पर सीकर में खाली जगह है जिसकी कमी के चलते फितरा व जकात कुछ पेशेवर लोग भेष बदलकर आकर एक तरह से लूटकर ले जाते हैं। जिन लूटेरों को शाम के समय स्टेशन-बस स्टेंड या अस्थायी बस्तियों के आसपास शराब के ठेकों पर मंडराते देखा जा सकता है। जबकि जरुरतमंद रिश्तेदार-पड़ोसी व इज्जतदार जो खुलेतौर पर मांग नहीं सकता वो इससे महरुम होता जा रहा है। भेष बदलकर आने वालों में हो सकता है कि कुछ लोग अपनी जायज जरुरीयात पूरी करते हैं जबकि इनमें से अधीकांश लोग नाजायज जरुरीयात ही पूरी करते नजर आयेंगे।
शहरो व गांवों में कुछ लोग व्यक्तिगत या समूह के तौर पर योजनाबद्ध तरीकों से काम करने लगे हैं कि वो मोटे कमीशन के तौर पर स्थानीय स्तर पर जकात-फितरा व इमदाद जमा करके या करवाकर शहर व बस्ती के बजाये राज्य के बाहरी लोगों तक पहुंचाते हैं जिनका मदद देने वाले स्वयं को पता तक नहीं होता कि उन्होंने किसको या किस इदारे को मदद की है। भारत भर में जकात-फितरा व इमदाद का कुछ धार्मिक शैक्षणिक इदारे व तंजीमें अच्छे से उपयोग कर रहे हैं। इनके साथ साथ दिल्ली स्थित जकात फाऊंडेशन आफ इण्डिया नामक संगठन भी बच्चों को सिविल सेवा की तैयारी करवाने में उक्त धन का सदुउपयोग करते हुये बेहतरीन रजल्ट दे रहा है। राजस्थान के सीकर शहर स्थित तौसीफ समाज सुधार समिति भी बहुत ही छोटे स्तर के अपने बैतूल माल से खासतौर पर महाजनी सूद की चक्की मे पिसने से लोगों को बचाकर एक मिशाल कायम कर रही है।
कुल मिलाकर यह है कि जकात-फितरा-खैरात व इमदाद को लुटेरों के हाथ में जाने की बजाये उसके उपयोग का स्थानीय स्तर पर मुनज्जम तरीका अपनाने पर विचार करना चाहिए। हर शख्स को यह भी तय करना होगा कि उसके द्वारा दिये जा रहे धन का उपयोग पहले उसके जरुरतमंद रिश्तेदार-पड़ोसी या उस तंजीम-इदारे के लिये हो जिसको व जिसकी खिदमात को भलीभांति जानता हो। अगर उक्त दान का उपयोग सकारात्मक दिशा में नहीं हो रहा हो तो उस शख्स के जागरूक शहरी होने की काबलियत पर भी सवालिया निशान खड़ा करता है।


Discover more from New India Times

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

By nit

Discover more from New India Times

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading