अबरार अहमद खान, स्टेट ब्यूरो चीफ, भोपाल (मप्र), NIT:
भोपाल गैस त्रासदी के 39 वर्ष चुके हैं लेकिन इसका ज़ख्म अभी भी भरा नहीं है। कई लोग आज भी इससे हुई बीमारियों से जूझ रहे हैं। 3 दिसंबर 1984 की वह आधी रात थी जिस में हज़ारों लोग अपनों से बिछड़ गए और जो बच गए उन्हें सरकारों से आज तक इंसाफ़ नहीं मिला।
बताया जा रहा है कि मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में हजारों लोग सोए तो लेकिन उनकी अगली सुबह कभी नहीं हुई। यूनियन कार्बाइड के संयंत्र में गैस रिसाव से लोगों का दम घुटने लगा। यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी से निकली गैस ने हजारों लोगों की जान ले ली। इस गैस कांड में करीब 150,000 लोग विकलांग हुए वहीं लगभग 20000 लोग मौत के आगोश में चले गये। इसकी वजह से भोपाल त्रासदी पूरी दुनिया के औद्योगिक इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना है।
चारों ओर सिर्फ धुंध ही धुंध थी। धुंध के कारण कुछ दिखाई नहीं दे रहा था और लोगों को कुछ नहीं सूझ रहा था कि किस रास्ते से भागना है चारों ओर दम घुटने से लोग मर रहे थे। उस सुबह यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर ‘सी’ में हुए रिसाव से बने गैस के बादल को हवा के झोंके अपने साथ बहाकर ले जा रहे थे और लोग मौत की नींद सोते जा रहे थे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के अंदर 3000 से अधिक लोग मारे गए थे, लेकिन अगर प्रत्यक्षदर्शियों का और गैस त्रासदी पर काम कर रहे एनजीओ की मानें तो उस त्रासदी में मरने वालों की संख्या कई गुना थी जिसे मौजूदा सरकार ने दबा दिया था। वो तो महज एक रात थी लेकिन मरने वालों का और उस गैस से पीड़ित लोगों के मौतों का सिलसिला बरसों तक चलता रहा। इस दुर्घटना के शिकार लोगों की संख्या 20 हजार तक बताई जाती है।
उस रात यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी से करीब 40 टन गैस का रिसाव हुआ था। वहीं इस रिसाव के बारे में बताया जाता है कि टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का पानी से मिल जाना, इससे हुई रासायनिक प्रक्रिया की वजह से टैंक में दबाव पैदा हो गया और टैंक खुल गया और उससे रिसी गैस ने हजारों लोगों की जान ले ली। इस रिसाव से सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए कारखाने के पास स्थित झुग्गी बस्ती में रहने वाले लोग, ये वो लोग थे जो रोजीरोटी की तलाश में दूर-दूर के गांवों से आ कर वहां रह रहे थे। इस रिसाव ने महज तीन मिनट में हजारों लोग न केवल मौत की नींद सो गए बल्कि लाखों लोग हमेशा-हमेशा के लिए विकलांग हो गए, जो आज भी इंसाफ के इंतजार में हैं। उस रात के कई किस्से आज भी लोग याद करके सिहर जाते हैं। हांफते और आंखों में जलन लिए जब प्रभावित लोग अस्पताल पहुंचे तो ऐसी स्थिति में उनका क्या इलाज किया जाना चाहिए, ये डॉक्टरों को मालूम ही नहीं था। डॉक्टरों के लिए मुश्किलें यह थी शहर के दो अस्पतालों में इलाज के लिए आए लोगों के लिए जगह नहीं थी।
वहां आए लोगों में कुछ अस्थाई अंधेपन का शिकार थे, कुछ का सिर चकरा रहा था और सांस की तकलीफ तो सब को थी। एक अनुमान के अनुसार पहले दो दिनों में करीब 50 हजार लोगों का इलाज किया गया। शुरू में डॉक्टरों को ठीक से पता नहीं था कि क्या किया जाए क्योंकि उन्हें मिथाइल आइसोसाइनेट गैस से पीड़ित लोगों के इलाज का कोई अनुभव जो नहीं था।
हालांकि गैस रिसाव के आठ घंटे बाद भोपाल को जहरीली गैसों के असर से मुक्त मान लिया गया था लेकिन 1984 में हुए इस हादसे से अब भी यह शहर उभर नहीं पाया है। रिपोर्ट्स में यह भी पता चला है कि गैस रिसाव के बाद कंटामिनेशन धीरे-धीरे और खराब होता जा रहा है।
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