अशफ़ाक़ क़ायमखानी, सीकर/जयपुर (राजस्थान), NIT:

चुनाव के समय दुसरों को आगे करके स्वयं मुख्यमंत्री बनने वाले अशोक गहलोत का राजस्थान की राजनीति में जारी युग अब समाप्ति की तरफ जाता नज़र आ रहा है। जब जब गहलोत के मुख्यमंत्री कार्यकाल में उनके नेतृत्व में हुए चुनाव में कांग्रेस हर दफा ओंदे मुह गिरी है। फिर भी कांग्रेस हाईकमान ने जब इससे सबक नहीं लिया तो 2023 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस मात खा गई।
5-सितंबर को हाई कमान द्वारा जयपुर भेजे गये प्रैवेक्षक को षडयंत्र द्वारा बैरंग लोटने पर मंजूर करने वाले अशोक गहलोत को हाईकमान द्वारा तूरंत हटाकर उसी समय नये मुख्यमंत्री को शपथ दिला देते तो कांग्रेस को आज यह दिन देखने नहीं पड़ते। लेकिन गहलोत हाईकमान पर हावी उसे कमज़ोर साबित करने में सफल रहे। उस घटना के बाद गहलोत ने हाईकमान को लगातार आंखे दिखाते हुए दबाव में लेकर टिकट बंटवारे में मनमर्ज़ी चलाई। जिसका परिणाम तीन दिसंबर के परिणाम में नज़र आया।
अशोक गहलोत सरकार चला सकते हैं पर वो सरकार रिपीटर कभी नहीं हो सकते। उनका ना व्यक्तित्व प्रभावी है ओर ना ही वो भीड़ खेंचू साबित होते हैं। पहले 1998 में परशराम मदेरणा के नाम पर चुनाव लड़ा गया तो गहलोत दिल्ली की कृपा से मुख्यमंत्री बन गये। फिर 2003 में गहलोत के नेतृत्व में चुनाव लड़ने पर कांग्रेस बूरी तरह हारी। 2008 में कांग्रेस सीपी जोशी को आगे करके चुनाव लड़ने पर फिर गहलोत मुख्यमंत्री बन गये। 2013 में फिर गहलोत के चेहरे पर चुनाव लड़ने पर कांग्रेस हारी। 2018 में सचिन पायलट के चेहरे पर चुनाव लड़े जाने पर गहलोत मुख्यमंत्री बन गये। अब 2023 के चुनाव में गहलोत फिर चेहरा बनने पर जनता ने फिर नकार दिया। जनता गहलोत को बार बार नकारती रही ओर कांग्रेस उन्हें जनता पर बार बार थोपती रही।
पहली दफा 1998 में गहलोत के मुख्यमंत्री बनने से सत्ता में मात्र विधायकों को अहमियत देने की शुरुआत हुई। जिससे संगठन कमज़ोर होता गया। जिसका परिणाम यह आया कि प्रदेश में संगठन कमज़ोर होने से कार्यकर्ताओं में निराशा का भाव आया। उनकी दिलचस्पी चुनाव में जीतने के बजाय अपने उम्मीदवारों से नाराज़गी ज़ाहिर हुई। अशोक गहलोत द्वारा विधायकों की टिकट नहीं काटने की ज़िद्द भी हार के कारण रहे हैं।
कुल मिलाकर यह है कि राजस्थान की राजनीति में अब अशोक गहलोत युग समाप्ति की तरफ जाता साफ दिखाई दे रहा है। कांग्रेस नेताओं व कार्यकर्ताओं के साथ साथ विधायकों ने गहलोत से दूरी बनाना शुरू कर दिया है। गहलोत कभी जननेता नहीं रही है। वो केवल दिल्ली हाईकमान की मेहरबानी से पद पाते गये। जब कांग्रेस को गहलोत की जरूरत पड़ी तो उन्होंने अपना असली चेहरा दिखा दिया।
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