हरकिशन भारद्वाज, जयपुर (राजस्थान), NIT:
दीपोत्सव हमें निराशा में आशा की, अंधेरे में उजाले की और अशुभ में शुभ की मनोकामना पूर्ण करने की देविक प्रेरणा देता है। अब हमारी मनोवृति ठहरे हुए पानी की तरह नहीं है अपितु बहते हुए पानी की तरह अपने-अपने मन की बात कह कर रामायण से महाभारत में बदलती जा रही है। हम संवेदनहीन होते जा रहे हैं, अधिकारों की परवाह है किंतु कर्तव्यों को भूलते जा रहे हैं। स्व-हित में पर-हित को दरकिनार करते जा रहे हैं। यदि हम संवेदनशील होकर अपने मन के राम को जगाएं तो आज अपना हो ना हो पर कल हमारा होगा। आज गांव से संसद तक जैसी राजनीति हम देख रहे हैं तब हमारी जीवन यात्रा में सांस्कृतिक अनुष्ठानों की विजय का अब क्या अर्थ है इसे हमें समझना होगा। सोचिए कि किसान आत्महत्या कर रहा है और कर्ज में डूब कर खेती-बाड़ी छोड़ रहा है तो फिर हमारे 6 लाख गांव क्या दीपावली का पर्व मना रहे हैं? जब मजदूर अपनी मेहनत की मजदूरी से विस्थापित है और कारखाने कंपनी का मालिक अपने मुनाफे से स्थापित है तो फिर ऐसे में दीपावली की धमाचौकड़ी यहां कौन करवा रहा है? आरक्षण के दलदल में बुरी तरह फंसे इस देश में जहां प्रतिभा का गला काट, बेरोजगारों की जमात चारों ओर सुरसा के मुंह की भांति बढ़ती ही जा रही है ऐसे में जहां लोगों का दिवाला निकल रहा है तो कैसी दीपावली? हम अक्सर सोच ही नहीं पाते कि जब भारत की संस्कृति महिला प्रधान है तो फिर भारत में महिला उत्पीड़न सबसे अधिक क्यों? हमारे व्रत-त्योहार, उपवास, साधना, नदियां जब सभी देविय नामों से बहती हैं तो मातृ प्रधान संस्कृती पर पुरुष प्रधान शक्ति की पूजा कौन कर रहा है? संस्कृति की उल्टी गंगा में अब कौन नारी को उसके अधिकार और सम्मान देने पर व्याकुल है? इसलिए आज भी हमारी मानसिकता “शक्ति की भक्ति में मगन है।”
हमें दीपोत्सव जैसे उत्सवों में उन सबको कभी नहीं भूलना चाहिए जो खुशियों के नक्कारखाने में किसी पीड़ित, वंचित और शोषित की तूती की सदियों पुरानी आरती को नहीं सुन पा रहा है। आप देखें तो सही यहां कोई शस्त्रों की पूजा कर रहा है तो कोई मंदिर में शंख बजा रहा है तो कोई धर्म और जाति की विजय यात्रा निकाल रहा है तो कोई सरकार और प्रशासन का गुणगान कर रहा है तो कोई लक्ष्मी पूजा का दरबार सजा रहा है लेकिन कोई बताए तो सही कि भारत में आज कौन है जो वैष्णव जन की बात कर दूसरों की पीड़ा को समझ रहा है? चिंतन कीजिए क्योंकि सत्य, शिव और सौंदर्य की विजय का जन्म एक पराजित सत्य से ही होता है।अतः हमें आज विकास और परिवर्तन की लोकयात्रा में आज के इन सवालों का जवाब ढूंढना ही होगा कि आज हमारा समाज इतना असहिष्णु, हिंसक और गैर बराबरी, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह- माया से अभीशोषित और कलंकित क्यों है क्योंकि जब घर-घर में रावण हों और घर-घर लंका हो तो फिर हम इतने राम कहां से लाएं जो भारत की 134 करोड़ देवी देवताओं को उनके पापों से मुक्त करा दें और गांव तथा गरीब को शांति और सद्भाव का विजय मंत्र सुना दे। इसलिए हमें अपना समय और धन नष्ट करने की बजाये लोगों के मन के राम को जगाने का प्रयास करना चाहिए। संवेदनाएं जिंदा रहें तो ज्यादा सार्थक होगा और पर्व मनाए जाने की वास्तविक मंशा की पूर्ति होगी।
“एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट -घट में लेटा, एक राम का सकल पसारा और एक राम है सबसे न्यारा।”
अर्थात आत्मा रूपी राम को जगाना होगा तब ही दीपावली शुभ होगी।
" आप सभी को NIT टीम की और से दीपोत्सव की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ... "।
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