अर्नब मामले में मुठ्ठी भर समर्थकों के अलावा एक बड़ा तबक़ा विरोध में है लामबंद: सैयद ख़ालिद कैस | New India Times

Edited by Abrar Ahmad Khan, NIT:

लेखक: सैयद ख़ालिद कैस

अर्नब मामले में मुठ्ठी भर समर्थकों के अलावा एक बड़ा तबक़ा विरोध में है लामबंद: सैयद ख़ालिद कैस | New India Times

गत तीन दिनों से सोशल मीडिया पर कथित पत्रकार अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी के बाद की खबरें जमकर नज़र आ रही हैं। पत्रकारिता की एक नई परिभाषा के जनक अर्नब गोस्वामी का देश भर में आमजन द्वारा विरोध देखा जा रहा है। भाजपा द्वारा जिस प्रकार अर्नब गोस्वामी के समर्थन में रैली, धरना प्रदर्शन ने यह सोचने पर विवश कर दिया कि वह पत्रकार था या पार्टी विशेष का प्रवक्ता जो उसके समर्थन में देश के गृहमंत्री सामने आ गये और उसकी गिरफ्तारी को पत्रकारिता अर्थात लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर हमला बताया। केंद्रीय मंत्री, सांसद, भाजपा नेताओं द्वारा जिस प्रकार खुलकर अर्नब गोस्वामी का समर्थन करते हुए गिरफ्तारी का विरोध किया उसका मूल कारण महाराष्ट्र सरकार को बदनाम कर उखाड़ फेंकने के सिवा कुछ नहीं है। सर्वविदित है कि दिल्ली, उत्तर प्रदेश सहित भाजपा शासित प्रदेशों में जिस प्रकार पत्रकारों पर अत्याचार हुए और हो रहे हैं उस पर भाजपा की खामोशी किसी से छिपी नहीं है। परंतु महाराष्ट्र की ठाकरे सरकार को निशाने पर रखने वाली केंद्र सरकार और विशेषकर भाजपा अर्नब गोस्वामी की आड़ में अपना हिसाब चुकता करना चाहती है तभी उसको पत्रकारों के अधिकार, उनकी सुरक्षा और लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की चिंता हो गई है।

मोदीराज में गिरफ्तार पत्रकार

केसी वागखेम, ओम शर्मा, एमए गनाई, अश्विनी सैनी, नेहा दीक्षित, विशाल आनन्द, सिद्धार्थ वरदराजन, प्रशांत कनोजिया, पवन चौधरी, ए एसआर पांडियन, मनीष पांडेय, सुभाष राय, विजय विनीत एवं ज़ुबैर अहमद।

क्या यह पत्रकार नहीं हैं, क्या इनकी गिरफ्तारी से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं हुआ, क्या इनकी गिरफ्तारी से लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर हमला नहीं हुआ। ज़रूर हुआ परन्तु इन सबकी गिरफ्तारी के पीछे केंद्र व भाजपा शासित सरकारें थीं इसलिए भाजपा को कोई पीड़ा नहीं हुई। परन्तु उनके तोते ओह्ह सॉरी समर्थक, प्रवक्ता पर शिवसेना कांग्रेस नीत महाराष्ट्र सरकार का चाबुक चलते ही सबकी पीड़ा उभर कर सामने आगई।

बेंगलुरु में कन्नड़ भाषा की साप्ताहिक संपादक व दक्षिणपंथी आलोचक गौरी लंकेश की गोली मारकर की गई निर्मम व निंदनीय हत्या, इससे पहले नरेंद्र दाभोलकर, डॉ. एम.एम. कलबुर्गी और डॉ. पंसारे की हत्या पर देश में पार्टी विशेष द्वारा इस तरह सड़कों पर नहीं उतरना भी जगज़ाहिर है।

” 2004 से लेकर 2020 तक लगभग 66 पत्रकारों ने अपनी जान गंवाई है जिसमें 2014 से 2020 तक इन 66 पत्रकारों में से 46 पत्रकारों की हत्या हुई।”

खैर! अब बात करें अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर देश के पत्रकार संगठनों और नामीगिरामी पत्रकारों की आई प्रतिक्रियाओं की। तो देश के पत्रकार संगठन एनयूजे, दिल्ली पत्रकार संघ, एडिटर्स गिल्ड, वर्किंग जर्नलिस्ट्स ऑफ़ इंडिया ने अर्नब के समर्थन में चीख पुकार की, परन्तु उनकी आवाज़ इतनी बुलन्द नहीं थी कि अर्नब के खिलाफ मोर्चा सम्भाले एक बड़े वर्ग के सामने टिक सके।
पत्रकारिता जगत में निष्पक्ष पत्रकारिता के आधार स्तम्भ कहे जाने वाली देश के नामी गिरामी शख्सियतें अर्नब मामले में कुछ अलग ही नज़रिया रखती हैं।

केंद्र सरकार और भाजपा शासित सरकारों की मुखर विरोधी महिला पत्रकार आरफ़ा खानम शेरवानी ने तो यहाँ तक लिखा डाला कि -”मैं ‘पत्रकार’ हूँ और इसीलिए अर्नब के साथ नहीं हूँ।”
वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर, आशुतोष, रवीश कुमार, विनोद दुआ आदि अर्नब गोस्वामी के मामले में अलग राय रखते हैं।
वहीं डॉ. मुकेश कुमार का कहना है कि कुछ साल पहले तक अर्नब पत्रकार थे, अब वे बहुत कुछ हैं पर पत्रकार नहीं।

मीडिया में आम आदमी की समस्याओं से इत्तर होकर अनुपयोगी रियल्टी शो संचालित होने लग गए हैं। पत्रकारिता की जनहितकारी भावनाओं को आहत किया जा रहा है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मीडिया की स्वतंत्रता का मतलब कदापि स्वच्छंदता नहीं है। खबरों के माध्यम से कुछ भी परोस कर देश की जनता का ध्यान गलत दिशा की ओर ले जाना कतई स्वीकार्य नहीं किया जा सकता। मीडिया की अति-सक्रियता लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो रही है। निष्पक्ष पत्रकार पार्टी के एजेंट बन रहे हैं। एक बड़ा पत्रकार तबका सत्ता की गोद में खेल रहा है। आदर्श और ध्येयवादी पत्रकारिता धूमिल होती जा रही है व पीत पत्रकार का पीला रंग तथाकथित पत्रकारों पर चढ़ने लग गया है। 


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