Edited by Piyush Mishra, NIT:
लेखिका: दीप्ति डांगे, मुम्बई
आन्दोलन समाज के विकसित होने की प्रक्रिया में जन्म लेते हैं जिनका उद्देश्य समाज के वर्तमान जीवन में कोई न कोई परिवर्तन होता है उसका असर आने वाले भविष्य पर पड़ता है जो देश के हित में होता है। आंदोलन को तीन भागों मे बांट सकते है, क्रांतिकारी आंदोलन, सामाजिक आंदोलन, राष्ट्रीय आंदोलन।
भारत एक बहुभाषीय, बहुल सांस्कृतिक वाला देश होने के बावजूद हमारे दुःख, हमारी चिन्ताएँ, हमारे विचार एक से रहे हैं। आजादी से पहले, देश से अंग्रेजों को भगाने और देश को आजाद कराना देशवासियों का एक मात्र लक्ष्य था जिसके लिए अलग अलग तरीके से कई तरह के क्रांतिकारी आंदोलन चलाए गए जो एक व्यक्ति के नृतत्व में चलाये जाते थे। इन आंदोलनों ने अंग्रेजी हकूमत को हिलाकर देश को आजाद कराया।
जहां आजादी से पहले सिर्फ क्रांतिकारी आंदोलन होते थे वहीं आजादी के बाद पर्यावरण आंदोलन, मानवाधिकार आंदोलन, नारीवादी आंदोलन, छात्र आंदोलन, जन-जागरण आंदोलन होने शरू हुए। जिसमें लोग धर्म, जाति, लिंग का भेद भुला कर जन साधारण अपनी मांगों को मनवाने के लिए आंदोलन करते रहे जो देश में ब्लॉक स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के आंदोलन होते हैं। ऐसे आंदोलन किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि अनेक व्यक्तियों के सामूहिक प्रयास का परिणाम होते थे। आन्दोलन प्रारम्भ में एक छोटे रूप में शुरू होता था किन्तु क्रमशः बढ़ते हुए वह समस्त समाज पर छा जाता था, उसकी अपनी प्रथाएं और परम्पराएं होती थीं उसमें एक संगठन होता था, उसमें नेता होते थे और श्रम विभाजन होता था तथा उसमें कुछ सामाजिक नियम और मूल्य होते थे। इन आंदोलनों का राजनीति से कुछ लेना देना नहीं होता था। इनका सरोकार मानव जीवन की गुणवत्ता का विकास करना होता था या देश हित के लिए होता था। जैसे चिपको आंदोलन, साइलेंट वैली, जेपी आंदोलन, निर्भया, अन्ना आंदोलन आदि जो बहुत सफल हुए जो अपार जनसमर्थन से सरकार को हिलाकर रख दिया और नया इतिहास रच दिया।
आजादी के बाद पहला हिंसक आंदोलन मंडल कमीशन की सिफारिशों के विरोध में हुआ।
ये निर्णय एक ऐसा राजनीतिक निर्णय था जिसने न केवल देश को टुकड़ों में बांटने का कार्य किया बल्कि सामाजिक कड़वाहट का दौर शुरू हो गया। इसके विरोध में क्रांतिकारी आंदोलन शुरू हुआ जो राष्ट्रव्यापी आंदोलन बना। ये आंदोलन खून से सना था और बिना किसी नेतृत्व के किया था जिसको सरकार ने अपनी ताकत से दबा दिया। ये आंदोलन सफल नही हुआ और सरकार के निर्णय से देश का बहुत अहित हुआ।नेता क्षेत्रीय क्षत्रप बनते चलते गए, वक्त के साथ ये क्षेत्रीय नेता मजबूत हुए और अपने-अपने राज्यों में ये नेता पिछड़ों की राजनीति से पलायन करते करते सिर्फ और सिर्फ अपनी जाति की राजनीति करने लगे।दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र वोट बैंक की सियासत में ऐसे फंसा कि सत्ता के तंत्र जातीय तंत्र को ही मजबूत करने में लग गए।
पिछले कुछ सालों से आंदोलनो का स्वरूप और तरीका बदला। 2014 के बाद के आंदोलन क्रान्तिकार, सामाजिक और राष्ट्रीय आंदोलन न होकर सिर्फ राजनीतिक साजिश बन कर रह गए है।ऐसे आंदोलनो में जनता सिर्फ कठपुतली होते है ।इसके तार बड़े और मंजे हुये राजनीतिक खिलाडि़यों या अराजक तत्वों के हाथों में होते है।जो मानवता को ताक पर रखकर अपना खेल खेलते है।जातिवाद या संविधान के नाम पर पूरे प्रदेश को आग में झोंक देते है,अराजकता फैलाई जाती है,सड़कों और रेलवे को अवरुद्ध किया जाता है।जान माल की हानि होती है ।सोशल मीडिया के जरिए आपत्तिजनक चीजें डाल लोगो को भृमित किया जाता है।इनका मकसद केंद्र या राज्य सरकार को बदनाम करना, बहुसंख्यक समाज और सम्प्रदायवाद के प्रति वैमनस्यता उत्पन्न करना होता है।इन आंदोलनो के पीछे देश विरोधी जिहादी-आतंकवादी-सांप्रदायिक -राजनीतिक शक्तियां सक्रिय होती हैं।अब इन आंदोलनों में PFI और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI प्रमुख रूप से संलिप्त हो रही है। ऐसे आंदोलनो के लिए विदेशों से बड़ी धनराशि आती है।और इन आंदोलनो को मीडिया अपनी TRP बढ़ाने के लिए प्राइम कवरेज देती है।पर सच्चाई ये है कि इन का आंदोलनो के पीछे एक गुप्त एजेंडा होता है जिसके तहत देश को और सरकार को अस्थिर करने और देश के आस्तित्व पर चोट करना है। नेतायों को देश की सत्ता हथियाना।जो देश के अस्तित्व और सहिष्णुता के लिए खतरा बनता जा रहा। जैसे शाहीन बाग आंदोलन और दिल्ली दंगे,पटेल आरक्षण और गुर्जर आरक्षण, मंदसौर किसान आंदोलन, पंजाब आंदोलन, हाथरस आंदोलन।
भारत मे आंदोलनो का इतिहास ब्रिटिश सरकार के काल से मिलता है और पहला क्रांतिकारी आंदोलन चुहाड़ आंदोलन (1769-1778) था। उसके बाद अंग्रेज शासन को उखाड़ फेकने के लिए बहुत से जनआंदोलन हुए। जिनके कारण देश स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता के बाद कई प्रकार के आंदोलन हुए प्राकृतिक, सामाजिक, क्रांतिकारी और राष्ट्रीय आंदोलन। कई आंदोलनो ने भयावह रूप भी लिया। कुछ आंदोलनो से सत्ता परिवर्तन तक हुए।पर इन आंदोलनों के नायकों की महत्वाकांक्षा राजनैतिक महत्वाकांक्षा से बिल्कुल भिन्न होती थी। यह सत्ता से दूर रहते हुए भी सत्ता से सहयोग की इच्छा, दान का लाभ, स्वयं की सामाजिक स्वीकार्यता और समाज का विकास करना चाहते थे।जिनको जन समर्थन भी बहुत मिला और दूसरी तरफ सत्ता के घाघों ने ऐसी महत्वाकांक्षा वाले व्यक्तियों और संगठनों का उपयोग अपने विरोधियों के लिये करना आरंभ किया।इन सभी आंदोलनों मे एक विशेषता थी कि जिस भी आंदोलन मे राजनीति ने प्रवेश किया या जिस भी आंदोलन को राजनीतिज्ञों ने अपने हाथ मे लिया वह आंदोलन तात्कालिक लाभ लेने मे तो सफल रहा किंतु बाद मे पूरा आंदोलन ही असफल हुआ।पर वर्तमान में आंदोलनो की परिभाषा ही बदल गयी।ये सुनियोजित तरीके से किये जाते है।आंदोलन की पट कथा पहले लिखी जाती है। जिनका सिर्फ एक ही उद्देश्य होता है देश अस्थिर करना। मौका देख कर इनका मंचन जनता के द्वारा कराया जाता है और इनके सूत्रधार राजनीतिक,साम्प्रदायिक, देशद्रोही शक्तियां और देश की बाहरी शक्तियों होती है।
‘Presstitute’ मीडिया भी ऐसे आंदोलनो का हिस्सा बन अपनी रोटियां सेकती है। धर्म,जाति के नाम पर राजनीति की जाती है। जो बाद मे जातीय दंगो मे परिवर्तित हो जाते है। सच्चाई ये है कि कल जो आंदोलन देश को विकास की ओर ले जाते थे आज के आंदोलन देश को तोड़ने की एक साजिश बन है।
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