अबरार अहमद खान, स्टेट ब्यूरो चीफ, भोपाल (मप्र), NIT:
सम्पूर्ण भारत में पत्रकार बिरादरी पर हो रहे हमले किसी से छिपे नहीं हैं। विगत 6 वर्षों में पत्रकारिता के गिरते स्तर और बिकाऊ मीडिया ने पत्रकारिता की छवि धूमिल कर रखी है।
प्रेस क्लब ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स के अध्यक्ष सैयद ख़ालिद क़ैस ने भारत वर्ष में पत्रकारों की खराब होती हुई स्थिति और गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि अफगानिस्तान किसी ज़माने में पत्रकारों की कब्रगाह कहलाता था परन्तु विगत वर्षों में जिस प्रकार भारत में पत्रकारों की निर्मम हत्याएं होने एवं उनकी आवाज़ को दबाने का जो कुचक्र चला है और जिस प्रकार केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पत्रकारों के साथ दमनकारी नीति अपनाई जा रही है उसने साबित कर दिया है कि अब भारत को भी पत्रकारों की कब्रगाह कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगा।
श्री क़ैस ने भारतीय संविधान और संसद द्वारा गठित भारतीय प्रेस परिषद जिसे प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया भी कहा जाता है को भी पत्रकारों की खराब स्थिति के लिए ज़िम्मेदार बताते हुए इसे सफ़ेद हाथी निरूपित किया। उन्होंने कहा कि पीसीआई को पत्रकारों की कोई चिंता नहीं है। आज से 4 वर्ष पूर्व रांची में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति चंद्रमौलि कुमार प्रसाद ने बिहार और झारखंड में पत्रकारों की हत्या की कड़ी निंदा करते हुये कहा था कि मीडिया कर्मियों की सुरक्षा के लिए विशेष कानून बनाया जाना चाहिए। देश में मीडिया कर्मियों पर हमले बढ़ रहे हैं, देश में मीडिया की स्वतंत्रता और पत्रकार सुरक्षित नहीं है। उन्होंने कहा था कि यह चिंता की बात है कि ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं। दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र में ऐसी घटनाएं दुखद हैं।इस विषय पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। ऐसे घटनाओं के 96 प्रतिशत मामलों का कोई नतीजा नहीं निकलता है और कुछ कानूनी पचड़ों में फंस जाते हैं। मीडिया कर्मियों की सुरक्षा के लिए विशेष कानून बनाया जाना चाहिए और उन पर हमलों से संबंधित मामलों की सुनवाई त्वरित अदालतों में होनी चाहिए। परन्तु 4 वर्ष के इस लंबे अंतराल में भारतीय प्रेस परिषद द्वारा भारत सरकार पर पत्रकारों के हित में पत्रकार सुरक्षा कानून बनाने पर बल नहीं दिया गया। ऐसा नहीं है कि इन 4 वर्षो में पत्रकार सुरक्षित रहे वरन सम्पूर्ण भारत में दर्जनों मामलों में पत्रकारों ने अपनी जानें गंवाई, हज़ारों मामलों में पत्रकारों के खिलाफ झूठे मामले दर्ज हुए। सरकारों के इशारे पर पत्रकारिता का गला घोंटा गया मगर सबकुछ होता रहा और भारतीय प्रेस परिषद मूक दर्शक नज़र आया। वर्तमान सन्दर्भ में केंद्र सरकार ने 23 जुलाई को लोकसभा में व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थिति को विनियमित करने वाले कानूनों में संशोधन करने के लिए व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थिति संहिता विधेयक, 2019 प्रस्तुत कर श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 को निरस्त किया गया है जो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के साथ कुठाराघात है। उस पर भी पीसीआई की खामोशी चिंता का विषय है।
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