अंकित तिवारी, ब्यूरो चीफ, प्रयागराज (यूपी), NIT:
दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा की ओर से ‘बढ़ते स्त्री विरोधी अपराधों की जड़ और प्रतिरोध की दिशा’ विषय पर परिचर्चा आयोजित की गयी। नौजवान भारत सभा के प्रतिनिधि ने कहा कि भारत में पूंजीवादी लोकतंत्र क्रान्तिकारी नहीं बल्कि प्रतिक्रांतिकारी रास्ते से अस्तित्व में आया जिसकी वजह से अभी भी पुरानी मूल्य मान्यताएं बची हुई हैं। इसके साथ ही पूंजीवादी व्यवस्था की रुग्ण मनोरोगी संस्कृति भी आज समाज में हावी है और शासक वर्ग अपने हित के लिए पुरानी मूल्य- मान्यताओं के साथ -साथ आधुनिक रुग्णताओं का भी इस्तेमाल करता है। नतीजा यह है कि एक तरफ तो हमारे देश में पेशा-पोशाक-जीवनसाथी जैसे निहायत व्यक्तिगत मामलों में भी स्त्रियां स्वतन्त्र नहीं हैं। स्त्रियों की स्वतंत्र सामाजिक-राजनैतिक भागीदारी, अपने जीवन के मामले में खुद फैसला लेने की कोशिश रूढ़िवादी, कट्टरपंथी ताकतों को बर्दाश्त नहीं होती। स्त्रियों के खिलाफ अपराधों के लिए स्त्रियों के पहनावे-ओढ़ावे, बाहर निकलने, दोस्ती करने, फोन पर बात करने आदि को ही वजह बना दिया जाता है। इस सन्दर्भ में पिछले दिनों आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत, मुलायम सिंह, शरद यादव, ममता बनर्जी जैसे तमाम पार्टियों के नेताओं व पुलिस के आला अधिकारियों के घटिया बयानों के बारे में आपको पता है। दूसरी तरफ लूट और मुनाफे पर टिकी मौजूदा व्यवस्था व मीडिया ने सेक्स खिलौना, सेक्स पर्यटन, वेश्यावृत्ति के नये-रूपों, विकृत सेक्स, बाल वेश्यावृत्ति, पोर्न फिल्मों, विज्ञापनों आदि का कई हजार खरब डालर का एक भूमण्डलीय बाजार तैयार किया है। सामान्य मध्यवर्गीय घरों के किशोरों व युवाओं से लेकर मज़दूर बस्तियों तक भी नशीली दवाओं, पोर्न फिल्मों, की पहुँच बहुत बड़े पैमाने पर हो गई है। विश्वविद्यालयों, कॉलेजों आदि में पढ़ने वाली बहुत सारी लड़कियों को लगता है कि आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होकर वो अपनी आजादी हासिल कर सकती हैं। गरीब व मेहनतकश औरतों की तुलना में यह बात कुछ हद तक यह सही है। लेकिन नौकरीशुदा महिलाएं भी कार्यस्थल व घरेलू उत्पीड़न के विभिन्न रूपों से नहीं बच पाती। वहीं करोड़ों मेहनतकश औरतों की जिन्दगी देखना हो तो उन फैक्ट्रियों की ओर चलना होगा जहाँ ये 12-12 घण्टे खट रही हैं। छोटे-2 कमरों में माइक्रोस्कोप पर निगाहें गड़ाये सोने के सूक्ष्म तारों को सिलिकान चिप्स से जोड़ रही हैं। फैक्ट्रियों में कटाई-सिलाई कर रही हैं, खिलौने तैयार कर रही हैं, फूड प्रोसेसिंग के काम में लगी हुई हैं। बहुत कम पैसों में स्कूलों में पढ़ा रही हैं, टाइपिंग कर रही हैं, करघे पर काम कर रही हैं और पहले की तरह बदस्तूर खेतों में खट रही हैं। महानगरों में वे दाई-नौकरानी का काम भी कर रही हैं और ‘बार मेड’ का भी। मालिकों, सुपरवाइजरों की गाली भी सह रही हैं और शारीरिक उत्पीड़न का शिकार भी हो रही हैं।
वास्तव में स्त्रियों की मुक्ति क्रांतिकारी बदलाव से ही संभव है। तात्कालिक तौर पर सख़्त कानून बनाने व उन पर सही तरीके से अमल के लिये सत्ताधारी वर्ग पर संगठित दबाव बनाने के अलावा स्त्रियों को अपनी सुरक्षा के लिये खुद आगे आना होगा। छात्रों-युवाओं के और लड़कियों के चौकसी दस्ते बनाने होंगे। विश्वविद्यालयों-कॉलेजों में पढ़ने वाली लड़कियों को घर-परिवार की इज्जत व कॅरियर आदि का भय छोड़ना होगा। कस्बों और बस्तियों की औरतों की संगठित करने के लिए आगे आना होगा। पुनर्जागरण व प्रबोधन की मुहिम कमरों से बाहर निकलकर पूरे देश में संगठित करना होगा ताकि पुरानी परम्पराओं की कब्र खोदी जा सके।
लेकिन स्त्री-मुक्ति आन्दोलन अपने मुकाम पर तभी पहुँच सकता है जब मौजूदा लूट व अन्याय पर टिकी पूँजीवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के दीर्घकालिक संघर्ष में उतरा जाय। एक नयी व्यवस्था का निर्माण करने के लिये एक परिवर्तनकारी विचारधारा, राजनीति और उसे लागू करने वाले क्रान्तिकारी संगठन की जरूरत होगी, जो चुनावी रास्ते से नहीं बल्कि इंकलाबी रास्ते से एक नये समाज, एक नयी व्यवस्था का निर्माण करे। पितृसत्ता और पूँजीवाद के अपवित्र गठबंधन का मुकाबला करने के लिये स्त्री-मुक्ति आन्दोलन को व्यापक मेहनतकश आबादी के आन्दोलन के साथ अनिवार्य एकजुटता बनानी होगी। न्याय और सच्ची बराबरी पर आधारित एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था का निर्माण करना होगा।
Discover more from New India Times
Subscribe to get the latest posts to your email.